बस्तर का दशहरा
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छत्तीसगढ़

रावण बिना, 75 दिनों का दशहरा

Author : रवीना शशि मिंज

राज एक्सप्रेस। छत्तीसगढ़ जिले के दक्षिण दिशा में स्थित है, जिला बस्तर। यह इलाका पूर्ण रूप से प्राकृतिक सौन्दर्य एवं सुखद वातावरण का धनी है। आदिवासी बहुल जनसंख्या वाले बस्तर के लोगों की पहचान अद्भुत कलाकृति, उदार संस्कृति एवं सरल स्वभाव से है।

यूं तो बस्तर जिले में अनेक पारंपरिक लोकपर्व आयोजित होते हैं लेकिन इन पारंपरिक लोकपर्व में ‘बस्तर दशहरा’ का स्थान सबसे अलग है। यहां 75 दिनों तक दशहरा मनाया जाता है।

रावण वध की परंपरा नहीं

शंखिनी - डंकिनी नदी के संगम पर बसे दंतेवाड़ा में बस्तर राजवंश की कुल देवी माता दंतेश्वरी विराजमान हैं। दंतेश्वरी, दंतेवाड़ा और दशहरा बस्तर का प्रतीक है। बस्तर का दशहरा अपने आप में एक अनूठा पर्व है, जिसमें रावण वध की परंपरा नहीं है। यह पौराणिक, ऐतिहासिक, स्थानीय वनवासी परंपराओं, तंत्र साधना इत्यादि का मिश्रण है। यहां के लोगों की अद्भत सांस्कृतिक एकजुटता ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बस्तर की पहचान स्थापित की है।

दंतेश्वरी देवी की रथ यात्रा

दशहरा पर रथ चलाने की परंपरा सबसे महत्वपूर्ण

एक प्रसिद्ध कथा है, बस्तर के चालुक्य वंशीय राजा भैराव देव के पुत्र पुरूषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथ पुरी तक पद यात्रा की और मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं और आभूषण अर्पित किए थे। जिसके एक प्रसिद्ध कथा है, बस्तर के चालुक्य वंशीय राजा भैराव देव के पुत्र पुरूषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथ पुरी तक पद यात्रा की और मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं और आभूषण अर्पित किए थे। जिसके बाद मंदिर के पुजारी को सपने में भगवान जगन्नाथ ने दर्शन दिया और पुरूषोत्तम देव को रथपति घोषित करने का आदेश दिया था। तभी से दशहरे पर रथ चलाने की परंपरा चली आ रही है।

क्या है ‘पाट जात्रा’ परंपरा

दशहरे के कई दिन पहले से रथ का निर्माण कार्य शुरू हो जाता है। रथ का विधिवत तरीके से निर्माण किया जाता है। रथ में इस्तेमाल होने वाले लकड़ियों को पहले पूजा जाता है, यही परंपरा ‘ पाट जात्रा ’ के नाम से प्रसिद्ध है। रथ बनाने के लिए दरभंगा के जंगलों से लकड़ियाँ लाई जाती हैं। बकरे की बलि और पूजा करने के बाद रथ का निर्माण कार्य शुरू किया जाता है।

पाट जात्रा के बाद रथ अचाण फंसाने की परंपरा भी अहम है। इस रस्म में काले बकरे और मांगुर प्रजाति की मछली की बलि चढ़ाई जाती है। जिसके बाद रथ चक्कों में छेद कर उसमें अचाण फंसाया जाता है।

देवी से ली जाती है दशहरा मनाने की स्वीकृति

काछिन देवी को दंतेश्वरी देवी का स्वरूप माना जाता है। काछिन गुड़ी में अश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी का कार्यक्रम आयोजित होता है। काछिनगादी में काछिन देवी के लिए बेल और कांटों का झूला तैयार किया जाता है।

काछिन देवी मृगान जाती के लोगों की कुल देवी है इसलिए मृगान जाति की नाबालिग लड़की को इस कार्यक्रम के लिए श्रृंगार किया जाता है। उसे उन काटों के झूलों में बिठाया जाता है। गाँव वालों की मान्यता है कि कांटों से बने झूले पर बैठी इस नाबालिग के शरीर में काछिन देवी पूजा के दौरान प्रवेश करती हैं। गांव वाले नाबालिग के शरीर में प्रवेश काछिन देवी से दशहरा मनाने की स्वीकृति लेते हैं।

बेल और कांटों का झूला, जिसमें नाबालिग लड़की को बिठाया जाता है।

नवरात्री के नौ दिनों में ये खास होता है

नवरात्रि का आरंभ दंतेश्वरी देवी की पूजा से होता है, और तभी से बहुत से रस्मों की शुरूआत होती है :-

जोगी बिठाई

शहर के सिरहासार भवन में जोगी बिठाई की रस्म अदायगी होती है। हल्बा जाति का एक व्यक्ति लगातार 9 दिनों तक योगासन में बैठा रहता है। जोगी बिठाई से पहले एक बकरा और 7 मांगूर मछली काटने की रस्म है।

जोगी बिठाई रस्म

6 दिनों तक फूल रथ की परिक्रमा

नवरात्री के दूसरे दिन से सप्तमी तक फूलों का रथ पूरे नगर की परिक्रमा करता है। मां दंतेश्वरी के प्रधान पुजारी द्वारा मां दंतेश्वरी के छत्र को पूरे विधि विधान के साथ 6 तोपों की सलामी देकर रथ में चढ़ाया जाता है। फूलों की रथ को खींचने में दूर दराज के गाँव वाले भी शामिल होते हैं।

नवमीं की शाम मालवी परघाव

नवमीं की शाम को सिरहासार में समाधिस्थ योगी को विधिविधान से उठाया जाता है और उन्हें सम्मानित किया जाता है। वहीं इस दिन मावली देवी की मूर्ति के दंतेवाड़ा से दंतेश्वरी मंदिर तक दंतेश्वरी रथ में बिठा कर लाते हैं। श्रृद्धालु धूमधाम से माता का स्वागत करते हैं। नए कपड़ें में चंदन के लेप लगाकर मूर्ति बनाई जाती है। मूर्ति के लिए फूलों की पालकी तैयार की जाती है।

मावली देवी निमंत्रण पाकर दशहरा मनाने अपनी पालकी में बैठकर जगदलपुर पहुँचती हैं।

विजयदशमी में महायात्रा

विजयदशमी यानी दशहरा के दिन आठ चक्कों वाले रथ की यात्रा निकाली जाती है। पहले के दिनों में विजयदशमी की शाम को रथ के सामने भैंस की बलि दी जाती थी। विजयदशमी में रथ परिक्रमा पूरी होने के बाद आदिवासी लोग प्रथा अनुसार रथ को चुराकर कुम्हाड़ाकोट ले जाते हैं।

विजयदशमी की महायात्रा

दशहरा के बाद देवी-देवताओं को दी जाती है विदाई

दशहरा के अगले दिन काछिनदेवी को अर्पित होता है। इस दिन सिरहासार में ग्रामीणों की आमसभा होती है। सभा में गाँव के मुखिया, ग्रामीणों की परेशानियों पर चर्चा करते हैं और यही सभा मुरिया दरबार कहलाती है। मुरिया दरबार के बाद गाँव के लोग सभी देवी-देवताओं को विदाई देते हैं।

बस्तर के दशहरा में रावण वध की परंपरा नहीं है । यह पौराणिक, ऐतिहासिक, स्थानीय वनवासी परंपराओं, तंत्र साधना इत्यादि का मिश्रण है।

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