सर्वे के अंतरों से समझें भारत की कम बेरोजगारी दर का गणित
हाईलाइट्स –
PLFS की सालाना रिपोर्ट जारी
UER एवं LFPR के स्तर चिंतनीय
बेरोजगारी दर में गिरावट का रुझान!
श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) में वृद्धि!
ANCHOR - भारतीय नीति निर्माताओं के लिए पिछले एक दशक में दो सबसे बड़ी चिंताएं अहम रहीं हैं। अर्थव्यवस्था में यूईआर (UER) का उच्च स्तर और एलएफपीआर (LFPR) का निम्न स्तर।
PLFS की ताजा सालाना रिपोर्ट -
सरकार ने शुक्रवार को पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस/PLFS) की ताजा सालाना रिपोर्ट जारी की। डेटा जुलाई 2019 और जून 2020 के बीच 12 महीने (या चार तिमाहियों) के लिए था।
इसने दो आश्चर्यजनक रुझान दिखाए। एक, इस अवधि में भारत के अनइंप्लॉयमेंट रेट यानी बेरोजगारी दर (यूईआर/UER) में गिरावट आई। दूसरा, लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट यानी श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर/LFPR) में वृद्धि हुई।
ये नतीजे चौंकाने वाले क्यों हैं?
पिछले एक दशक में, भारतीय नीति निर्माताओं के लिए दो सबसे बड़ी चिंताएँ अर्थव्यवस्था में UER के उच्च स्तर और LFPR के निम्न स्तर हैं। दरअसल LFPR उन भारतीयों का अनुपात है जो अर्थव्यवस्था में भाग लेना चाहते हैं।
हाल के दिनों में, भारत का एलएफपीआर (LFPR) 40% से कम रहा है। आपको बता दें वैश्विक मानदंड लगभग 60% है। यहां तक कि भारत का एलएफपीआर चीन (76%) और इंडोनेशिया (69%) जैसे अधिकांश एशियाई समकक्षों के मानक से बहुत नीचे है।
दूसरे शब्दों में, प्रत्येक 100 में से केवल 40 भारत में काम की तलाश में आगे आते हैं। अन्य जगहों पर तुलनीय संख्या लगभग 60 है।
यूईआर को ऐसे समझें -
यूईआर (UER) श्रम बल में उन लोगों का प्रतिशत है जिन्हें रोजगार नहीं मिलता है। पिछले कुछ वर्षों में, भारत का यूईआर (UER) लगभग 6% (या अधिक) हो गया है। वैश्विक या क्षेत्रीय मानदंड से यह कहीं अधिक है। दूसरे शब्दों में, उन 40 में से जिन्होंने अर्थव्यवस्था में भाग लेना चुना, कम से कम 6% को कोई नौकरी नहीं मिली।
LFPR-UER संयोजन के दो मतलब -
कम एलएफपीआर और उच्च यूईआर के संयोजन से तब दो तात्पर्य निकलते हैं। एक, भारत अपनी जनसंख्या के बहुत छोटे अनुपात का उपयोग उत्पादक उद्देश्यों के लिए कर रहा है। दूसरा, अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि वह श्रम शक्ति के इस अपेक्षाकृत छोटे अनुपात को रोजगार प्रदान नहीं कर सकती है।
जीडीपी से संबंध -
परिणाम इसलिए भी आश्चर्यजनक हैं क्योंकि वे उस अवधि के अनुरूप हैं जब भारत की जीडीपी विकास दर में तेजी से गिरावट आई थी। साल 2019-20 में तब यह घटकर 4.2% हो गई थी।
उसके बाद, कोविड-प्रेरित लॉकडाउन ने विकास और रोजगार की संभावनाओं को धूमिल कर दिया। या यूं कहें कि एक तरह से बर्बाद कर दिया।
पहली रिपोर्ट विवादित -
इस परिणाम का संदर्भ भी महत्वपूर्ण है। वर्ष 2017-18 के लिए पीएलएफएस का पहला संस्करण विवादित रहा। इसमें भारत की बेरोजगारी दर 45 साल के उच्च स्तर पर पहुंचना दर्शाया गया था।
पहले की कोशिश और फिर स्वीकार किया -
सरकार ने उन निष्कर्षों को कम करने की कोशिश की क्योंकि वह 2019 में एक राष्ट्रीय चुनाव का सामना कर रही थी, लेकिन अंततः चुनावों के बाद डेटा को स्वीकार कर लिया।
अहम सवाल -
एक साल में जब विकास में इतनी तेजी से गिरावट आई तो श्रम बल की भागीदारी और बेरोजगारी दर (unemployment rates) में सुधार कैसे हुआ? इसे जानने के लिए, पहले यह समझना होगा कि पीएलएफएस (PLFS) डेटा कैसे एकत्र करता है।
आपको बता दें पीएलएफएस (PLFS) नेशनल स्टैस्टिकल ऑफिस यानी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ/NSO) द्वारा आयोजित एक वार्षिक सर्वेक्षण है। इसे 2017 में शुरू किया गया था और यह अनिवार्य रूप से रोजगार की स्थिति को दर्शाता है।
ऐसा करने में, यह बेरोजगारी के स्तर, रोजगार के प्रकार और उनके संबंधित शेयरों, विभिन्न प्रकार की नौकरियों से अर्जित मजदूरी आदि जैसे चर पर डेटा एकत्र करता है। पहले, यह काम रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण द्वारा किया जाता था, लेकिन ये हर पांच साल में एक बार आयोजित किया गया।
बेरोजगारी की गणना कैसे? -
इसके दो तरीके हैं। ये तरीके संदर्भ अवधि के मामले में भिन्न होते हैं। इसमें उत्तर देने वालों को यह याद रखना होता है कि वे नियत अवधि में काम कर रहे थे या नहीं।
पहला तरीका - एक को यूज़ुअल स्टेटस यानी सामान्य स्थिति (यूएस/US) कहा जाता है। इसमें सर्वेक्षण से यह पता लगाया जाता है कि सर्वे से पहले के 365 दिनों में किसी व्यक्ति को पर्याप्त दिनों के लिए नियोजित किया गया था या नहीं।
दूसरा तरीका - दूसरे दृष्टिकोण को करंट वीकली स्टेटस (CWS) या वर्तमान साप्ताहिक स्थिति कहा जाता है। इसमें सर्वेक्षण यह पता लगाने की कोशिश करता है कि सर्वेक्षण से पहले के 7 दिनों में किसी व्यक्ति को पर्याप्त रूप से नियोजित किया गया था या नहीं।
आमतौर पर, एनएसओ बेरोजगारी संख्या सबसे नियमित रूप से उद्धृत की जाती है जो सामान्य स्थिति (यूएस/US) पर आधारित होती है।
वैश्विक मानदंड -
लेकिन यह दृष्टिकोण या तो वैश्विक मानदंड (जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा अनुसरण किया जाता है) या निजी क्षेत्र के अभ्यास (जैसे कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी या सीएमआईई (CMIE) द्वारा किए गए सर्वेक्षण) के साथ तुलनीय नहीं है। सीडब्ल्यूएस वैश्विक मानदंड के करीब है।
पहेली सुलझाने में कैसे मददगार? -
एक, सामान्य स्थिति-आधारित डेटा के संदर्भ में इस डेटा के जानकारों ने राय रखी है। डेटा एक्सपर्ट्स का मानना है कि एलएफपीआर में वृद्धि और यूईआर में गिरावट दोनों को "संकट में वृद्धि" द्वारा समझाया गया है।
एक्सपर्ट्स कहते हैं; अगर वार्षिक रिपोर्ट में अन्य तालिकाओं को देखें तो पता चलता है कि एलएफपीआर में वृद्धि इसलिए हो रही है क्योंकि काम के अवसर कम हो गए हैं और आय कम हो गई है।
कुछ जानकारों की राय है कि लोगों को स्वरोजगार के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसमें काम करने वाले को अक्सर "घरेलू उद्यम में सहायक" के रूप में नामित किया जाता है। भले ही मजदूरी (या वेतनभोगी) रोजगार का सापेक्ष हिस्सा गिर जाये।
सीडब्ल्यूएस (CWS) पर आधारित बेरोजगारी के आंकड़ों पर एक्सपर्ट्स ने कुछ बिंदुओं पर ध्यानाकृष्ट किया है कि; "यह कोई गिरावट नहीं दिखाता है।" सीडब्ल्यूएस पद्धति से पता चलता है कि बेरोजगारी वास्तव में कम नहीं हुई है।
डेटा इसलिए तुलनीय नहीं -
विभिन्न सर्वेक्षणों में अलग-अलग मेट्रिक्स होते हैं और इसलिए सीएमआईई (CMIE) डेटा पीएलएफएस (PLFS) डेटा से तुलनीय नहीं है। तुलमात्मक असमानता के कारण डेटा एनालिस्ट्स ने भारत को सीडब्ल्यूएस से प्राप्त बेरोजगारी की संख्या को अधिक महत्व न देने की राय दी है।
ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदल गया है। सामान्य स्थिति की साल भर की संदर्भ अवधि तब अधिक समझ में आई जब अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि प्रधान थी। आज यह नहीं है।
अधिक से अधिक लोग ऐसी नौकरियों में हैं जो साल भर के कार्यक्रम का पालन नहीं करते हैं। सीडब्ल्यूएस इसलिए भी अधिक प्रासंगिक है क्योंकि बेरोजगारी में तिमाही परिवर्तनों को समझने के लिए एनएसओ इसी दृष्टिकोण का उपयोग करता है।
सीडब्ल्यूएस डेटा के आइने में तस्वीर -
सीडब्ल्यूएस दृष्टिकोण का उपयोग करके संकलित यूईआर और एलएफपीआर प्रवृत्तियां सीएमआईई के डेटा के साथ या वास्तव में, व्यापक अर्थव्यवस्था के अन्य सभी संकेतकों (तालिका 3) के साथ एक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।
हम पाते हैं कि वर्ष के दौरान, जैसे-जैसे सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि लड़खड़ाती गई, बेरोजगारी दर बिगड़ने के बावजूद एलएफपीआर और गिर रहा था।
यह बात साल 2020 की अप्रैल से जून तिमाही के लिए विशेष रूप से सच है। इस दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में लागू लॉकडाउन के मुकाबले सबसे ज्यादा सख्त लॉकडाउन से प्रभावित थी।
सर्वे का अंतिम कॉलम विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि यह भारत के युवाओं में बेरोजगारी के स्तर को दर्शाता है। डेटा के मुताबिक पांच में से एक युवा नौकरी पाने में असफल रहा। चिंताजनक यह है कि यह स्थिति महामारी से पहले की थी।
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