'विकास के नाम पर डुबोए गए 250 गांव', नर्मदा बचाओ आंदोलन के 34 साल

"दुनिया के अंदर डुबोने का इतिहास नहीं लेकिन यहां डुबोए गए 250 गांव। विकास का ये मॉडल सही नहीं है,"- पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम। क्यों धरने पर बैठे हैं हज़ारों लोग और क्या है 'नर्मदा बचाओ आंदोलन'?
सम्पूर्ण पुनर्वास की मांग पर धरना दे रहे हज़ारों लोग।
सम्पूर्ण पुनर्वास की मांग पर धरना दे रहे हज़ारों लोग।रवीना शशि मिंज

राज एक्सप्रेस। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं और पीड़ित आम लोगों का विरोध प्रदर्शन 16 नवंबर से शुरू है। नर्मदा भवन के सामने सैकड़ों लोग सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के नेतृत्व में विरोध जता रहे हैं। डूब प्रभावित क्षेत्रों के इन लोगों की मांग है कि सरकार उन्हें उचित और पूर्ण पुनर्वास प्रदान करे।

हज़ारों की संख्या में लोग राहत शिवरों में रहने को मजबूर हैं, जहां न पीने के पानी की ठीक व्यवस्था है, न स्वास्थ्य सुविधाओं की। कई लोग जिनके घर और धंधे डूब की चपेट में आ गए उन्हें मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिल रही हैं।

शनिवार, 16 नवंबर 2019 की सुबह नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं और लोगों ने राजधानी भोपाल के शाहजहांनी पार्क में आम सभा आयोजित की। जिसके बाद यहां से नर्मदा भवन तक रैली निकाली गई और वहां पर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। लोगों का कहना है कि, जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, वे धरने पर बैठे रहेंगे।

इस साल सितंबर में सरदार सरोवर डैम में पानी वॉटरलेवल जितना भरा गया। गुजरात सरकार ने डैम के गेट बंद कर पानी भरना शुरू किया था ताकि डैम की क्षमता जांची जा सके। नर्मदा नदी का पानी आस-पास के इलाकों में भर गया और कई गांव इसकी चपेट में आ गए। अब लोग अपने हक का मुआवज़ा मांगने के लिए सरकार से गुहार लगा रहे हैं लेकिन केवल इतनी ही नहीं है ये आंदोलन, इसका इतिहास 34 साल पुराना है।

बड़वानी, धार और आस-पास के जिलों से आई सैकड़ों महिलाओं की तरह इस धरने में शामिल, कलाबाई, लीलाबाई, गंगाबाई आदि बताती हैं कि, इस साल बारिश के समय उनके घर, गांव डूब गए। वे सवाल करती हैं कि, हम राहत कैम्प्स में रहते हैं, कब तक वहां रहेंगे? हमें पहले वहां खाना मिलता था, अब वो भी नहीं मिलता।

डैम में जल बढ़ने से लोगों के व्यवसाय खत्म हो गए हैं। नर्मदा के पास रहने वाले अधिकतर कुम्हार मिट्टी से ईंट बनाते हैं, बर्तन आदि बनाते हैं। मुकेश और जितेन्द्र प्रजापति बताते हैं कि, 'हमारे ईंट भट्टे डूब गए। वहां लाखों की ईंटें हैं। सरकार ने साल 2017 में इसके बदले ज़मीन देने का वादा किया था लेकिन अभी तक हमें कोई ज़मीन नहीं मिली है।'

मध्यप्रदेश राज्य में दो बार विधायक रहे डॉ. सुनीलम बताते हैं कि, जब तक सरकार लिखित आश्वासन नहीं देती नर्मदा बचाओ आंदोलन का ये धरना ज़ारी रहेगा। वे कहते हैं, 'नर्मदा बचाओ आंदोलन पिछले 34 वर्षों से संघर्ष कर रहा है। पिछले साल सरकार ने कई वादे किए थे, जो कि अभी तक पूरे नहीं हुए हैं। हम लोग यहां ये कहने के लिए आए हैं कि, जो वादे सरकार ने किए थे, सरकार उन्हें पूरा करे। जब तक वादों के आदेश लिखित तौर पर नहीं मिलेंगे तब तक हम यहां से जाने वाले नहीं हैं।'

वे आगे बताते हैं कि, घाटी में करीब 32,000 परिवार ऐसे हैं, जिनका पुनर्वास नहीं हुआ है। उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सम्पूर्ण पुनर्वास के बिना डैम का काम नहीं हो लेकिन काम हो गया क्योंकि नरेन्द्र मोदी का अहम था, उनकी अपनी अकड़ थी, तो उन्होंने काम कर दिया।

"नर्मदा के जल से डूब में लगभग 250 गांव प्रभावित हैं। अब तक 20,000 किसानों को उनकी ज़मीन के बदले ज़मीनें मिली है। लगभग 30,000 लोगों को प्लॉट मिले हैं लेकिन अब भी 32,000 परिवार ऐसे हैं जिनका सम्पूर्ण पुनर्वास नहीं हुआ है," - डॉ. सुनीलम कहते हैं।

वे कहते हैं, अभी दिक्कत ये है कि, वॉटर लेवल को 138.68 के ऊपर पहुंचाया गया, जिससे सरकार द्वारा किए गए सर्वेक्षण से कई ज़्यादा लोग डूब गए, उनकी ज़मीनें डूब गईं, बहुत अधिक नुकसान हुआ। खेत और गांव टापू बन गए। हाल ये है कि, मध्यप्रदेश की 83 बसाहटों में लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी मुहैया नहीं हैं।

"हमारा सवाल विकास के सम्पूर्ण ढांचे पर है। हम चाहते हैं कि, मुख्यमंत्री कमलनाथ जी इन जगहों पर जाएं और वहां की हालत को देखें। विकास के नाम पर जो 250 गांव डूबे, लाखों पेड़ डूबे, पशुधन को नुकसान हुआ, जब वो यह विनाश देखेंगे तो समझ पाएंगे कि, हम लोग जो सवाल कर रहे हैं वो कितने जायज़ हैं।"

डॉ. सुनीलम, पूर्व-विधायक (मध्यप्रदेश)

वे आगे कहते हैं कि, "139 मीटर के वॉटर लेवल को घटाकर 122 मीटर किया जाए। मछुवारों के मछली मारने का अधिकार छीन कर ठेकेदारों को दिया जा रहा है, हम चाहते हैं कि ये अधिकार मछुवारों के पास ही रहना चाहिए।"

डॉ. सुनीलम विकास के नाम पर हो रहे नुकसान की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित करते हुए बताते हैं, 'हम कहते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं, विकास कर रहे हैं लेकिन विकास का ये मॉडल सही नहीं है।'

"दुनिया के अंदर डुबोने का इतिहास नहीं है। आपने कभी नहीं सुना होगा कि, विकास के नाम पर 250 गांवों को डुबोया गया। और, जिन लोगों के लिए ये किया गया उन्हें डैम बनने से कोई लाभ नहीं मिला। गुजरात के वो किसान अब भी पानी के लिए आंदोलन कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार, पानी निजी कंपनियों को दे रही हैं।"

डॉ. सुनीलम, पूर्व-विधायक (मध्यप्रदेश)

विरोध प्रदर्शन में ये छोटा बच्चा भी शामिल हुआ।
विरोध प्रदर्शन में ये छोटा बच्चा भी शामिल हुआ।प्रज्ञा
  • नर्मदा बचाओ आंदोलन-

साल 1961 में नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरू की गई इस योजना में तीन राज्य-गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान शामिल थे पर इनके बीच एक जल वितरण नीति पर सहमति नहीं बन पायी।

साल 1969 में, सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया गया, ताकि जल सम्बन्धी विवाद का हल कर परियोजना के कार्य को शुरु किया जा सके। साल 1979 में न्यायाधिकरण सर्वसम्मति से इस निष्कर्ष पर पहुँचा और नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया।

इस परियोजना के तहत नर्मदा नदी तथा उसकी 4134 नदियों पर दो विशाल बांधों- गुजरात में सरदार सरोवर बांध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल थे।

साल 1985 में इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की। प्रशासन ने कहा कि, इस परियोजना से तीनों राज्य के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों की 2.27 करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल मिलेगा, बिजली का निर्माण होगा, पीने के लिए जल मिलेगा तथा क्षेत्र में बाढ़ को रोका जा सकेगा।

अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, नर्मदा परियोजना ने एक गंभीर विवाद को जन्म दिया। जहां एक ओर सरकार ने इसे समृद्धि तथा विकास का सूचक माना, वहीं हज़ारों लोगों का जीवन इससे प्रभावित हुआ।

सरकार का दावा है कि, इस परियोजना से सिंचाई, पेयजल की आपूर्ति, बाढ़ पर नियंत्रण, रोजगार के नये अवसर, बिजली तथा सूखे से बचाव आदि लाभ हुए। वहीं दूसरी ओर अनुमान है कि, इससे तीनों राज्यों की 37,000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो गई, जिसमें से 13,000 हेक्टेयर वनभूमि शामिल है।

यह भी अनुमान है कि,

इससे 248 गांव के एक लाख से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा। जिनमें 58 प्रतिशत लोग आदिवासी क्षेत्र के हैं।

नर्मदा बचाओ आंदोलन साल 1985 से लगातार लोगों के हक के लिए लड़ाई लड़ रहा है। इस ही आंदोलन ने पहली बार पर्यावरण तथा विकास के संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया। इस आंदोलन में न केवल विस्थापित लोगों बल्कि वैज्ञानिकों, गैर-सरकारी संगठनों तथा आम जनता की भी भागीदारी रही।

साल 1980-87 के दौरान गैर-सरकारी संस्था अंक वाहनी के नेता अनिल पटेल ने जनजातीय लोगों के पुर्नवास को लेकर उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई लड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद, गुजरात सरकार ने दिसम्बर 1987 में एक पुर्नवास नीति घोषित की। दूसरी ओर मेधा पाटकर द्वारा शुरू किए गए नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना तथा इससे विस्थापित लोगों के पुर्नवास की नीतियों के क्रियान्वयन की कमियों को उजागर किया।

शुरू में इस आंदोलन का उददेश्य बांध को रोककर पर्यावरण को होने वाले नुकसान एवं लोगों के विस्थापन को रोकना था, लेकिन बांध बनना था सो बन गया। जिसके बाद आंदोलन का उद्देश्य बांध के कारण विस्थापित लोगों को सरकार द्वारा दी जा रही राहत सुविधाओं की देख-रेख और उनके अधिकारों के लिए न्यायायिक लड़ाई लड़ना बन गया।

आंदोलन की एक मांग यह भी है कि जिन लोगों की जमीन ली गई, भागीदारी का अधिकार होना चाहिए। उन्हें अपने लिए न केवल उचित भुगतान का हक हो, बल्कि परियोजना के लाभों में भी भागीदारी मिले।

आंदोलन ने विरोध के कई तरीके अपनाए, भूख हड़ताल, पदयात्राएं, समाचार पत्र, फिल्मी कलाकारों तथा हस्तियों ने भी इसका साथ दिया। इसके मुख्य कार्यकर्ताओं में मेधा पाटकर, अनिल पटेल, बुकर सम्मान से सम्मानित अरुंधती रॉय, बाबा आम्टे आदि शामिल हैं।

नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत सितम्बर, 1989 में मध्य प्रदेश के हरसूद में हुई एक आम सभा में 200 से अधिक गैर-सरकारी संगठनों के 45,000 लोगों ने भाग लिया था।

भारत में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी जन-आंदोलन से इतनी बड़ी संख्या में लोग जुड़े हों।

दिसम्बर, 1990 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने एक 'संघर्ष यात्रा' निकाली। लोगों को ये उम्मीद थी कि वे सरदार सरोवर बांध परियोजना पर पुर्नविचार करने के लिए सरकार पर दबाव बना सकेंगे।

पदयात्रा का परिणाम ये हुआ कि, विश्व बैंक ने 1991 में बांध की समीक्षा के लिए एक निष्पक्ष आयोग का गठन किया। आयोग ने कहा कि परियोजना का कार्य विश्व बैंक तथा भारत सरकार की नीतियों के अनुरूप नहीं हो रहा है। जिसके बाद साल 1994 में विश्व बैंक ने इस परियोजना से अपने हाथ खींच लिए

राज्य सरकारों ने परियोजना जारी रखने का निर्णय लिया। जिसके विरोध में मेधा पाटकर साल 1993 में भूख हड़ताल पर बैठीं। साल 1994 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दर्ज की और न्यायपालिका से केस के निपटारे तक बांध के निर्माण को रोकने की गुजारिश की।

साल 1995 के आरम्भ में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सरकार बांध के बाकी कार्यों को तब तक रोक दे जबतक विस्थापित हो चुके लोगों के पुर्नवास का प्रबंध नहीं हो जाता।

सरकार ने नर्मदा से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए, 'नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण' का गठन किया है।
सरकार ने नर्मदा से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए, 'नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण' का गठन किया है।रवीना शशि मिंज

18 अक्तूबर, 2000 को सर्वोच्च न्यायालय ने बांध के कार्य को फिर शुरू करने तथा इसकी उंचाई 90 मीटर तक बढ़ाने की मंजूरी दी। इसमें कहा गया कि ऊंचाई पहले 90 और फिर 138 मीटर तक जा सकती है, लेकिन इसके लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरण को कोई खतरा नहीं हो। साथ ही लोगों को बसाने का कार्य ठीक तरीके से चले।

न्यायपालिका ने विस्थापित लोगों के पुर्नवास के लिए नये दिशा-निर्देश जारी किए। जिनके अनुसार नये स्थान पर पुर्नवासित लोगों के लिए, प्रति 500 व्यक्तियों पर एक प्राथमिक विद्यालय, पंचायत घर, एक चिकित्सालय, पानी तथा बिजली की व्यवस्था तथा एक धार्मिक स्थल होना शामिल था।

अप्रैल 2006 में बांध की ऊंचाई 110 मीटर से बढ़ाकर 122 मीटर तक ले जाने का निर्णय लिया गया। मेघा पाटकर जो पहले से ही विस्थापित लोगों के पुनर्वास की मांग को लकर संघर्ष कर रहीं थीं इसके विरोध में अनशन पर बैठीं।

17 अप्रैल 2006 को नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने संबंधित राज्य सरकारों को चेतावनी दी कि यदि विस्थापितों का उचित पुनर्वास नहीं हुआ तो बांध का और आगे निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।

  • फिर क्यों मुखर हुईं आंदोलन की आवाज़?

इस ही साल सितंबर में धार जिले का चिकलदा गांव डूब की चपेट में आ गया। 'द कारवां' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डूबने से पहले इस गांव में 750 घर थे, 56 दुकानें, तीन विद्यालय, एक बड़ा खेल का मैदान, 36 धार्मिक स्थल और एक कब्रिस्तान भी था। ऐसा कहा जाता था कि, ये गांव भारत का पहला स्थान था जहां मानव सभ्यता के साक्ष्य मिलते हैं।

चिकलदा की तरह मध्यप्रदेश के 178 गांव डूब की चपेट में आए हैं, जो पूरी तरह या आंशिक रूप से सरदार सरोवर डैम की वजह से डूब गए। यह नर्मदा नदी पर बना सबसे बड़ा डैम है।

जून 2019 में गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर डैम के गेट्स बंद कर दिए और इसे 138.68 मीटर तक भरना शुरू कर दिया, ताकि इसकी क्षमता की जांच हो सके।

मई माह में मध्यप्रदेश सरकार के मुख्य सचिव एस. आर. मोहन्ती ने नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण और गुजरात सरकार को नोटिस दिया कि, अब तक 76 गांव और कम से कम 6000 परिवारों को विस्थापित नहीं किया गया है। जबकि, न्यायालय का निर्देश है कि डैम भरने के 6 माह पूर्व ही डूब प्रभावित क्षेत्रों को खाली कर दिया जाए। साथ ही इन क्षेत्रों के लोगों के विस्थापन की सही व्यवस्था हो।

नोटिस के बावजूद प्राधिकरण और गुजरात सरकार ने डैम भरने का कार्य जारी रखा जिससे 1,300 किमी लंबी नर्मदा नदी का बहाव टूट गया और उसने आस-पास के इलाकों को डूबा दिया।

जुलाई 2019 में नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा किए गए सर्वेक्षण में सामने आया कि, अब तक 31,593 परिवारों के विस्थापन दावे लंबित हैं।

अब एक बार फिर मेधा पाटकर के नेतृत्व में आम लोग नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में धरना दे रहे हैं।

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