हिंगोट युद्ध
हिंगोट युद्धSudha Choubey - RE

परंपरा के नाम पर जानलेवा है हिंगोट युद्ध, प्रशासन ने की व्यवस्था

हर साल की तरह इस साल भी दीपावली के ठीक दूसरे दिन इंदौर से 60 किमी दूर गौतमपुरा में दो गांवों के ग्रामीणों के बीच हिंगोट युद्ध होगा।

राज एक्सप्रेस। हर साल की तरह इस साल भी दीपावली के ठीक दूसरे दिन इंदौर से 60 किमी दूर गौतमपुरा में दो गांवों के ग्रामीणों के बीच हिंगोट युद्ध होगा। परंपरा निभाने के नाम पर खेले जाने वाले मौत के इस खेल को देखने के लिए भी हजारों लोग जुटेंगे। युद्ध देखने के लिए आसपास के शहरों और ग्रामीण क्षेत्र से हजारों लोग आएंगे।

तुर्रा और कलंगी दल लेते हैं भाग:

इस युद्ध में तुर्रा और कलंगी दल भाग लेते हैं। दोनों दल के योद्धा आमने-सामने खड़े होकर सूर्यास्त का इंतजार करते हैं और संकेत मिलते ही एक दूसरे पर जलते हुए हिंगोट बरसाना शुरू कर देते है। परंपरा के नाम पर खेले जाने वाले हिंगोट युद्ध में अंत में न किसी की हार होती है और न किसी की जीत।

प्रशासन ने की व्यवस्था:

प्रशासन ने दर्शकों की सुरक्षा के लिए आठ फीट ऊंची जाली लगाई है और युद्ध देखने आने वालों के स्वागत के लिए पूरे नगर को सजाया गया है। 300 से ज्यादा पुलिसकर्मियों ने मोर्चा संभाला हुआ है। दर्शकों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के लिए मैदान के चारों ओर जाली लगाई गई है। साथ ही मैदान पर डॉक्टर्स और लाइट की व्यवस्था भी की गई है। इंदौर से 60 किमी दूर गौतमपुरा में दीपावली के दूसरे दिन इस युद्ध का रोमांचक आयोजन आज सोमवार की शाम को होगा। परंपरा के नाम पर खेले जाने वाले हिंगोट युद्ध में अंत में न किसी की हार होती है न किसी की जीत। बड़नगर रोड स्थित देवनारायण मंदिर के सामने वाले मैदान पर हिंगोट युद्ध होगा।

क्या है हिंगोट:

हिंगोरिया नाम के फल को सुखा कर उसमें बारूद भरा जाता है और फिर उससे तैयार होता है हिंगोट। इस हिंगोट को जलाकर लोग एक-दूसरे पर फेंकते हैं। दीपावली के एक दिन बाद परंपरा के नाम पर ऐसा खेल खेला जाता है, जिसे देखकर लोग सिहर उठें। एक हाथ में ढाल और दूसरे हाथ में अग्निबाण लेकर एक टीम दूसरी टीम पर हमला करती है। इसमें अगर सगा भाई भी सामने वाली टीम में होता है तो युद्ध चलने तक वो अपने भाई के लिए दुश्मन ही होता है।

बड़ी तादाद में घायल होते हैं लोग:

इस युद्ध में हिस्सा लेने वाले लोग पूरी तैयारी के साथ पहुंचते हैं, जहां सुरक्षा के लिए उनके हाथों में ढाल होती है और सर पर साफा बांधे रहते हैं। इस युद्ध की परंपरा सालों पुरानी है, जिसका लिखित इतिहास नहीं मिलता है। हर साल में बड़ी तादाद में लोग आग से लड़े जाने वाले इस युद्ध में घायल होते हैं। मगर ये आज भी बदस्तूर जारी है और लोग अपनी जान पर खेलकर इस युद्ध का हिस्सा बनते हैं।

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