चंबल से पानी लाने की योजना बनते-बनते हो गए 10 साल, अब फिर योजना पर होने लगी चर्चा

ग्वालियर, मध्यप्रदेश : चंबल नदी से पानी लाने के लिए जब पानी लिफ्ट करने के लिए बिजली खर्च का आंकड़ा निकाला गया तो वह 510 करोड़ आ रहा था, इस खर्च को देखकर सरकार भी पीछे हट गई थी।
चंबल से पानी लाने की योजना बनते-बनते हो गए 10 साल
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ग्वालियर, मध्यप्रदेश। ग्वालियर को चंबल का पानी पिलाने का सपना सबसे पहले 1986-87 में ग्वालियर के कुछ प्रबुद्ध जनों ने देखा था। यह लोग चंबल नहर से जुड़े पगारा बांध से तिघरा जलाशय तक चंबल का पानी लाने की मांग को लेकर पगारा से तिघरा तक की पदयात्रा भी कर चुके थे, लेकिन उस समय बात आई गई हो गई थी। इसके बाद पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा ने चंबल से पानी लाने की योजना को लेकर बात करना शुरू की थी और वर्ष 2011 में प्रपोजल रिपोर्ट तैयार करना थी। हर बार जब गर्मी की मौसम में पानी का संकट आता है तो चंबल नदी से पानी लाने की योजना की चर्चा होने लगती है और इस चर्चा को होते हुए अभी तक पूरे 10 साल हो गए पर चंबल का पानी ग्वालियरवासियों को पीने के लिए नहीं मिल पाया है।

बताया गया है कि वर्ष 1986-87 में सर्वोदयी प्रेमनारायण शर्मा, वामपंथी बादल सरोज और समाजवादी वरिष्ठ पत्रकार डॉ राम विद्रोही ने चंबल नदी से पानी लाने की मांग को लेकर पैदल यात्री की थी। इसके बाद समय-समय पर यह मांग किसी न किसी रूप में विचार के लिए सामने आती रहीं। चंबल के पानी को ग्वालियर तक लाने के मुद्दे पर विषय विशेषज्ञों के साथ भी विचार-विमर्श होता रहा, किन्तु कोई भी इस परियोजना का सर्वे करने के लिए पैसा देने को राजी नहीं हुआ था। बावजूद इसके लोकस्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने स्थानीय नेतृत्व के दबाव में 1991 में चंबल से पानी लाने की योजना की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बनाई। उस समय इस परियोजना पर 237.72 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान था। पर न पैसे का इंतजाम हुआ और न योजना आगे बढ़ सकी और योजना को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया था। धूल खा रही इस महत्वकांक्षी योजना पर पड़ी धूल एक बार फिर 2006 में झाड़ी गयी, लेकिन इस बार योजना को चंबल के बजाय ककेटो बांध से बाबस्ता कर दिया गया था। इसके लिए डीपीआर 227.80 करोड़ की बनी लेकिन इस पर भी काम नहीं हो सका । इसके पीछे कारण यह है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति हमेशा इसमें आड़े आती रही। 2007 में युवा कांग्रेस ने चंबल जल यात्रा निकाल कर इस परियोजना को फिर से जीवित किया, लेकिन न नगर निगम आगे बढ़ी और न राज्य सरकार ने इस योजना पर हाथ रखा था। चंबल का पानी पीने को लालायित ग्वालियर के लोग संयोग से इस परियोजना को भूले नहीं ओर 2013 में एक बार फिर जलसंकट को देखते हुए नगर निगम को चंबल के बजाय ककेटो के पानी की याद आई। परिषद ने 328 करोड़ रूपए की योजना बना कर राज्यशासन को भेजी थी, क्योंकि निगम के बूते तो इस परियोजना पर काम शुरू होना संभव नहीं था। रा'यशासन ने नगरनिगम की इस परियोजना पर चर्चा कर इतने सवाल पूछ डाले की निगम प्रशासन की बोलती बंद हो गयी। शासन ने ककेटो से पानी लाने की परियोजना के साथ ही दूसरे वैकल्पिक स्रोत पर अध्ययन करने का सुझाव देकर योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया था।

आने वाले 50 साल को रखना है ध्यान :

आने वाले 50 वर्षों के लिए पेयजल की जरूरतें न कोई बांध पूरी कर सकता है और न सिंध नदी, ऐसे में एक मात्र विकल्प चंबल नदी से पानी लाना ही बचता था। जब सबने इस योजना को ठोक-बजा लिया तब 30 जून 2014 को मेयर इन काउंसिल ने एक संकल्प पारित कर शहर के लिए चंबल से पानी लाने की योजना को सैद्धांतिक स्वीकृति दी थी। परिषद के बजट में हालांकि ये योजना जि़ंदा रही और इसके लिए सांकेतिक बजट प्रावधान भी किये जाते रहे, किन्तु कोई काम नहीं हुआ। कांग्रेस को जब मेयर इन काउंसिल के फैसले की भनक लगी तो कांग्रेस ने 20 जुलाई 2014 को एक बार फिर चंबल जल यात्रा निकाली थी। इसके बाद परिषद में चंबल परियोजना की डीपीआर बनाने पर सर्वसम्मति बनी थी।

चंबल से पानी लिफ्ट करने बिजली खर्च देख खींचे पैर :

चंबल नदी से पानी लाने के लिए जब पानी लिफ्ट करने के लिए बिजली खर्च का आंकड़ा निकाला गया तो वह 510 करोड़ आ रहा था, इस खर्च को देखकर सरकार भी पीछे हट गई थी। विशेषज्ञों का मानना है कि चंबल नदीं को इलाके की जीवन रेखा कहा जाता है, चंबल में एक तो पर्याप्त पानी 12 महीने रहता है, यानि की अवर्षा की दशा में भी चंबल निराश नहीं करती साथ ही पानी गुणवत्ता के लिहाज से भी देश की ही नहीं दुनिया की तमाम नदियों से बेहतर है।

अब चंबल प्रोजेक्ट को 15 माह में लाने की योजना :

ग्वालियर शहर की दीर्घकालिक पेयजल आपूर्ति के लिए बनाए गए चंबल प्रोजेक्ट को अब 15 माह के भीतर धरातल पर लाने का काम किया जा रहा है। यह बात कोई ओर नहीं बल्कि ऊर्जा मंत्री ने बैठक कर कही थी। ऊर्जा मंत्री ने कहा था कि शहर किसी भी बस्ती में पेयजल की किल्लत नहीं होना चाहिए। अब सवाल यह है कि गर्मी के मौसम में तिघरा जवाब दे देता है तो फिर पानी लाने का दूसरा विकल्प भी तो होना चाहिए। वैसे ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर ने कहा था कि चंबल प्रोजेक्ट के टेण्डर की कार्रवाई जल्द पूर्ण करें ओर मुरैना जिले के अधिकारियों से भी समन्वय बनाकर काम किया जा सके जिससे 15 माह के भीतर चंबल का पानी ग्वालियर पहुंच सके। अब यह बात ऊर्जा मंत्री ने तो कह दी, लेकिन जो योजना 10 सालों से कागजों में इधर से उधर हो रही है उस पर 15 माह के अंदर काम पूरा कैसे हो सकता है।

इस तरह बनाई कार्य योजना :

  • चंबल प्रोजेक्ट के तहत मुरैना के अतरसोंवा ग्राम से मोतीझील तक लगभग साढ़े 37 किलोमीटर लम्बी माइल्ड स्टील पाइप लाईन डाली जाएगी।

  • शहर को 90 एमएलडी पानी मिलेगा।

  • श्यामपुर कूनों -सायफन पर प्रस्तावित डैम से पगारा होते हुए मुरैना जिले के कोतवाल डैम तक पानी आयेगा।

  • पानी को छोंदा के समीप से चंबल प्रोजेक्ट के तहत डाली जाने वाली पाइप लाइन से जोड़कर ग्वालियर की पेयजल आपूर्ति की जा सकेगी।

अभी ऐसे होती है पानी की सप्लाई :

शहर को तिघरा बांध से 136 एमएलडी पानी मिलता है, किन्तु गर्मियों में अक्सर तिघरा जलाशय जबाब दे जाता है। वर्ष 2011 की जनगणना के हिसाब से शहर की आबादी 11 लाख के आसपास थी, लेकिन 2021 में 16-17 लाख के करीब है। आबादी 19 लाख होने पर 264 एमएलडी पानी की जरूरत का अनुमान है। 2050 में शहर की आबादी अगर 26 लाख तक पहुंची तो शहर की जरूरत प्रतिदिन 358 एमएलडी पानी की हो जाएगी, यदि इसमें गैर घरेलू उपयोग और अग्निशमन के उपयोग के साथ ही 15 प्रतिशत की अन्य मांग को शामिल कर लें तो ये जरूरत 2020 में 265 एमएलडी, 2035 में 355 एमएलडी और 2050 में 480 एमएलडी होने की संभावना है। ऐसे में पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए मात्र चंबल से ही पानी लाना होगा, लेकिन सवाल यह है कि पिछले 10 साल से इस योजना पर सिर्फ कागजी काम किया जा रहा है जबकि धरातल पर कुछ नहीं है।

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