क्या आज की शिक्षा से बेहतर है पौराणिक शिक्षा पद्धति?

पौराणिक काल में भारत शिक्षा का नगर कहलाता था। दूर- दराज से लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे और तक्षशिला, नालंदा विश्वविद्यालय विश्व के अच्छे विश्वविद्यालयों में से एक हुआ करते थे।
आधुनिक शिक्षा बनाम पौराणिक शिभा
आधुनिक शिक्षा बनाम पौराणिक शिभाSyed Dabeer - RE

राज एक्सप्रेस। भारत का इतिहास जितना निराला है उतनी ही निराली हमारे देश की शिक्षा पद्धति है। देश में दो शिक्षा पद्धति ने जन्म लिया। एक अंग्रेजों के शासन से पहले जो पौराणिक शिक्षा पद्धति कहलाती है और एक अंग्रेजों द्वारा देश में अवतरित हुई नई प्रणाली की शिक्षा पद्धति जिसे मॉर्डन एजुकेशन के नाम से जाना जाता है।

पौराणिक और आधुनिक शिक्षा पद्धति में एक बहुत बड़ा अंतराल है। पौराणिक शिक्षा पद्धित में 4 चरण पढ़ने को मिलते हैं। वैदिक काल, ब्राह्मणवादी शिक्षा, बुद्द काल, मदरसा और फिर ब्रिटिश शासकों ने आधुनिक शिक्षा की नींव रखी।

इन चारों काल में शिक्षा की स्थिति असामन्य रही। शिक्षा में जाति भेद, लिंग भेद और तमाम तरह के दोष जहाँ आपको इन सदियों में देखने को मिलेंगे, उतने ही शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे प्रयोग आपको देखने को मिलेंगे।

सदियों से भारत में शिक्षा को महत्ता दी गई है, इसे विरासत माना गया है। पहले लोग अपने लिए नहीं बल्कि धर्म सेवा, आत्म बोध और मुक्ति के लिए शिक्षा ग्रहण करते थे।

डॉ आर. के मुखर्जी (इतिहास के जानकार)

प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक एवं मानवीय गुणों के मध्य संतुलन बनाये रखना था। शिक्षा अनिवार्य नहीं थी। शिष्य गुरू के समीप रहकर उनके दैनिक जीवन तथा उनके कर्मों मे जो सहायता करता था, उन्हीं के द्वारा वह ज्ञान प्राप्त कर लेता था। सामूहिक शिक्षा की अपेक्षा व्यक्तिगत शिक्षा पर जोर दिया जाता था। इस काल में शिष्य को नैतिक तथा अध्यात्मिक शिक्षा दी जाती थी ताकि वह समाज में सकारात्मक योगदान दे सके। शिक्षा का स्वामित्व ब्राह्मणों के हाथ में होता था। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की धार्मिक वृत्तियों का उत्थान, चरित्रनिर्माण, सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान, व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास मुख्य उद्देश्य था।

पौराणिक शिक्षा और आधुनिक शिक्षा की तुलना करने से पहले आइए इनके बारे में अच्छे से जान लिया जाए-

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित है कि विद्या वही समर्थ मानी जाती है जो आत्मावज्ञा उत्पन्न करें।

कौटिल्य अर्थशास्त्र

वैदिक काल - वेदों से ही शिक्षा की शुरूआत हुई है। यह दुनिया का सबसे प्राचीन साहित्य है। यह प्राचीन भारत में जीवन दर्शन का एक मूल स्रोत है। वेद पढ़ाने का मुख्य उद्देश्य सत्य का ज्ञान और सर्वोच्च की प्राप्ती था।

शिष्य सुबह मंत्रों का जाप करते थे, जो कि कला के रूप में विकसित हुआ। इस दौरान सही उच्चारण और अक्षर पर विशेष ध्यान दिया जाता था। व्याकरण, अलंकार, ज्योतिष, तर्क, निरुक्त मुख्य विषय हुआ करते थे। तर्क के प्रशिक्षण के लिए वाद-विवाद, चर्चाएं आयोजित की जाती थी। उच्चारण और चिंतन पढ़ाई की विधि हुआ करते थे।

ब्राह्मणिक शिक्षा- ब्राह्मणिक शिक्षा वैदिक शिक्षा की तुलना में थोड़ा अलग थी। वैदिक शिक्षा में शिक्षा के धार्मिक पहलू पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मगर ब्राह्मणिक शिक्षा में धार्मिक पहलू के अलावा सांसारिक पहलू पर भी ध्यान दिया गया है। आत्मनिर्भरता, आत्म नियंत्रण, चरित्र का निर्माण, व्यक्तिगत विकास, सामाजिक और नागरिक जीवन का ज्ञान और 24 राष्ट्रीय संस्कृति के साथ भौतिक विकास पर भी ध्यान दिया जाता था।

ब्राह्मणी शिक्षा में सामूहिक के बजाय व्यक्तिगत शिक्षा पर छात्रों की आंतरिक प्रतिभा पर विशेष ध्यान दिया गया। गुरूकुल, परिषद और सम्मेलन शिक्षा केन्द्र हुआ करते थे।

बौद्धिक काल- सिर्फ मोनास्ट्री में ही शिक्षा दी जाती थी। भिक्षुओं को शिक्षा का अधिकार था दूसरे वर्ग के लोग शिक्षा से वंचित थे। जिस भी बच्चे को शिक्षा ग्रहण करना होता तो वो शिक्षकों के समक्ष प्रस्तुत होकर उसे बोलना पड़ता है और फिर शिक्षकों के निर्देश अनुसार कार्य करना पड़ता है।

वैदिक काल में 25 की उम्र शिक्षा संपूर्ण हो जाती थी, जिसके बाद उन्हें गृहस्थ जीवन में लौटने का विकल्प मिलता था। वहीं बौद्ध काल में 12 साल की उम्र तक शिक्षा दी जाती थी, जिसके बाद उन्हें गृहस्थ जीवन में लौटने का विकल्प नहीं होता था।

सुत्तंत, विनय और धम्म मुख्य विषय होते थे। इसके अलावा कटाई, बुनाई, छपाई, कपड़ा, स्केचिंग, चिकित्सा, सर्जरी अन्य विषयों में शिक्षा दी जाती थी।

मदरसा की उत्पत्ति - वैदिक काल या गुरूकुल से हम थोड़ा ऊपर उठेंगे तो सन् 1206 ईसवी में मदरसा की उत्पत्ति हुई। मदरसा सिर्फ मुस्लिम समाज के लिए हुआ करते थे। यहाँ धर्म आधारित शिक्षा ही दी जाती थी। जिसने कहीं न कहीं कट्टरता को जन्म दिया है। भारत में मदरसे तेजी से बदलते आधुनिक, सामाजिक और शैक्षिक वातावरण के साथ तालमेल रखने में विफल रहे हैं।

Leiden E.j Brill द्वारा लिखी गई 'इंसायक्लोपीडिया ऑफ इस्लाम' के अनुसार मदरसों में इस्लामी विज्ञान, साहित्य और दर्शनिकों के बारे में पढ़ाया जाता था। मदरसा शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम के विश्वास और व्यवहार को इस्लाम के अनुयायियों के बीच स्थापित करना और उन्हें कुरान और पैगंबर की परंपराओं का पालन करने के लिए मार्गदर्शन करना था। इस्लामी अध्यात्मवाद व क़ानून के अलावा, अरबी व्याकरण व साहित्य, गणित, तर्कशास्त्र और कभी-कभी प्राकृतिक विज्ञान भी मदरसों में पढ़ाए जाते थे। अध्यापन निःशुल्क था व भोजन, आवास उपलब्ध कराने के अलावा चिकित्सकीय देखभाल भी की जाती थी। शिक्षण सामान्यतः आंगन में होता था व इसमें मुख्यतः पाठ्य-पुस्तकों व शिक्षक के उपदेशों को कंठस्थ करना होता था। शिक्षक अपने विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र जारी करते थे, जिसमें उसके शब्दों को दोहराने की अनुमति होती थी। शहज़ादे व अमीर परिवार, भवनों के निर्माण और विद्यार्थियों व शिक्षकों को वृत्ति देने के लिए दान में धन देते थे। 12वीं शताब्दी के अंत तक दमिश्क, बग़दाद, मोसल व अधिकांश अन्य मुस्लिम शहरों में मदरसे फलफूल रहे थे।

मदरसा में शिक्षा नि:शुल्क हुआ करती थी। महिलाओं को भी पढ़ने का अधिकार था।

मॉर्डन और आधुनिक शिक्षा प्रणाली

भारत में ब्रिटिशर्स ने आधुनिक शिक्षा पद्धति को जन्म दिया। सन् 1830 में Lord Thomas Babington Macaulay ने भारत में आधुनिक शिक्षा पद्धति की शुरूआत की। आधुनिक शिक्षा पद्धति के आगमन के साथ भारत में अंग्रेजी भाषा का भी उत्थान हुआ था। इस शिक्षा का मुख्य मकसद जनसंपर्क बढ़ाना था, वे लोगों को शिक्षित करना चाहते थे ताकि आसानी से लोगों से संपर्क हो सके। आधुनिक शिक्षा में विज्ञान, गणित, मेटाफिजिक्स और दर्शनशास्त्र विषयों को महत्ता दी जाने लगी। ब्रिटिशर्स द्वारा स्थापित की गई आधुनिक शिक्षा पद्धति आज भी चलन में है।

पौराणिक बनाम आधुनिक शिक्षा व्यवस्था

वैसे तो दोनों शिक्षा पद्धति में बहुत सी खूबियाँ और खामियाँ हैं। हम यहाँ दोनों शिक्षा पद्धति की तुलना के लिए कुछ मुख्य पहलुओं पर चर्चा करेंगे।

नारी शिक्षा व्यवस्था की स्थिति

पौराणिक

नारी शिक्षा व्यवस्था पर बहुत बड़ा संशय है। कुछ इतिहासकार मानते हैं महिलाओं की शिक्षा स्थिति बेहतर नहीं थी, पर कुछ के अनुसार वैदिक काल में स्थिति बेहतर थी।

डॉ किरण सिंह द्वारा लिखी गई किताब में प्राचीन भारत शिक्षा व्यवस्था में नारी शिक्षा की विस्तार से जानकारी दी गई है। किताब से मिली जानकारी के अनुसार मध्य एंव वर्तमान काल की अपेक्षा प्राचीन भारत के शुरूआती युग (वैदिक) में महिलाओं की शिक्षा संबंधी व्यवस्था काफी बेहतर थी। नारियों के लिए अलग से गुरूकुल हुआ करते थे, और इन्हें पढ़ाने वाली भी शिक्षिकाएं होती थीँ।

वैदिक काल में लड़कियों की शिक्षा को लड़कों की शिक्षा के सामान ही महत्ता दी जाती थी।

ब्रह्माचार्य काल में महिलाएं अपनी शारीरिक और बौद्धिक क्षमता का विकास करती हुई धर्म और संस्कृति के उन उपकरणों का ज्ञान प्राप्त करती थी ताकि गृहस्थ जीवन में उसका उपयोग हो सके।

सूत्रकाल में नारी शिक्षिकाओं की परंपरा अहम थी। गार्गी, बड़वा प्राथितेयी, वाचक्नवी और सुलभ मैत्रेयी उस काल की शिक्षिकाएं थी।

स्मृतियों के काल में नारी के धार्मिक अधिकारों में हुए हास्य के कारण नारी शिक्षा की स्थिति गिरती गई। इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि भारत में नारी शिक्षा की गिरती स्थिति का मुख्य कारण विदेशी आक्रमण, अपवित्रता की भावना और बाल विवाह है।

तृतीय- चतुर्थ शताब्दी या कहें गुप्त काल में महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा।

मध्यकाल में महिलाओं को खासकर हिंदू समाज की महिलाओं को औपचारिक शिक्षा नहीं दी जाती थी। उन्हें घर के कामों की शिक्षा दी जाती थी। एक प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक वात्स्यायन का कहना है कि महिलाओं को चौसठ कलाओं में अच्छा होना चाहिए था, जिसमें खाना बनाना, सिलाई, बुनाई शामिल है।

आधुनिक -

आधुनिक शिक्षा प्रणाली हर जात, धर्म और उम्र की महिलाओं को पढ़ने का हक देती है। समाज में महिलाओं के उत्थान के लिए उन्हें पूर्ण शिक्षा दी जा रही है। उनके लिए शिक्षा संबंधी कई योजनाएं बनाई जा रही हैं। उम्र दराज महिलाओं के लिए जो पढ़ने में रूचि रखती हैं उन्हें पढ़ने के लिए शाम को स्कूल खोले जाते हैं। आधुनिक शिक्षा में महिलाओं की स्थिति ज्यादा बेहतर है। आज की शिक्षा में जाति व्यवस्था नहीं है, सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं।

शिक्षा में जाति व्यवस्था

पौराणिक -

प्राचीन भारत में सम्पूर्ण समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित किया गया। वर्ण व्यवस्था के आधार पर ही शिक्षा के माध्यम से मनुष्य का सर्वागीण विकास किया जाता था। चार वर्गों में विभाजित जातियों में शूद्र जाति के लोगों को सही ढंग से शिक्षा नहीं दी जाती थी। इस वर्ग की आर्थिक और समाजिक स्थिति दयनीय थी। उन दिनों शिक्षा की कमान ब्राह्मणों के हाथों में हुआ करती थी।

इंसान के काम के हिसाब से उन्हें जातियों में बांटा गया। तब जातियों में हीन भावना नहीं हुआ करती थी। लेकिन समय के साथ- साथ जाति व्यवस्था उत्पन्न होने लगी और उसके आधार पर यह तय किया जाने लगा कि किसे शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है और किसे नहीं?

आधुनिक

आधुनिक शिक्षा ने जाति व्यवस्था जैसी रूढ़िवादियों को तोड़ा है। आज सभी जाति, सभी धर्म के लोग एक छत के नीचे साथ बैठकर पढ़ रहे हैं। यहाँ तक की स्कूलों में जातिवाद करने वालों के लिए संविधान में सजा का प्रावधान है।

शिक्षा अब सेवा नहीं, बिजनेस है

पौराणिक

प्राचीन काल में शिक्षा सेवा हुआ करती थी। अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों से धन मांगना अध्यापकों के लिए निन्दनीय माना जाता था। गुरू गरीब से गरीब विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करता था। विद्या के लिए मोल-भाव करने वाले गुरू की समाज में काफी निंदा होती थी। समावर्तन के अवसर पर शिष्य अपने सामर्थ्यानुसार गुरु-दक्षिणा के रूप गुरू को धन देते थे। जो अत्यन्त निर्धन होते थे वे गुरू की गृहस्थी में सेवा-कार्य करके तथा समावर्तन के समय भिक्षा मांग कर गुरू दक्षिणा देते थे।

शिष्य शिक्षा संपन्न होने के बाद गुरू के सेवा के रूप में भी गुरू दक्षिणा दे सकते थे। मगर आज हालात काफी अलग और परेशान करने वाले हैं।

आधुनिक

आधुनिक शिक्षा सिर्फ एक बिजनेस है। शहर की गलियों में छोटे- बड़े स्कूल देखने को मिल जाएंगे। निजी स्कूलों ने सरकारी स्कूलों की हालत खराब कर दी है। कुछ तो हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष है क्योंकि आज से कुछ सालों पहले तक सरकारी स्कूलों की हालत बर्बाद थी। इसलिए ऐसे व्यक्ति ही सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजा करते थे जो आर्थिकी कमज़ोर हो। आज भी सरकारी स्कूलों की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। शायद सरकारी स्कूल बेहतर शिक्षा दे रहे होते तो निजी स्कूल खुलते ही नहीं और शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं हुआ करता। अब निजी स्कूल को ही ले लीजिए, अच्छी शिक्षा, एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटी के नाम पर जमकर फीस ले रहे हैं।

शिक्षा का उद्देश्य जीवनयापन के लिए तैयार करना

हमने जैसे बताया है कि प्राचीन शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य आध्यात्मिक एवं मानवीय गुणों के मध्य संतुलन बनाये रखना था। इसके अलावा तीरअंदाजी जैसे हुनर शिक्षा का ही हिस्सा हुआ करता था ताकि शिष्य हर विषय में बेहतर हो सके।

आधुनिक शिक्षा का केवल उद्देश्य है शिष्य को इस लायक तैयार करना कि वह नौकरी पा सके। यह शिक्षा सिर्फ क्लास तक ही सीमित है। शिष्यों की जिदंगी सिर्फ गणित, विज्ञान आदि के बीच सिमट कर रह गई है। आधुनिक शिक्षा को देखकर लगता है मानों हम इंसानी रूपी रॉबोर्ट्स तैयार कर रहे हैं।

तीरअंदाजी, तैराकी, नृत्य और कला-कृतियां तो आज सिर्फ निजी महंगे स्कूल में ही सिखाए जाते हैं या जिन स्कूलों में यह हुनर नहीं सिखाते हैं उन्हें अलग से रूपए खर्च कर के सीखना पड़ता है।

बच्चों में बढ़ता तनाव

पौराणिक शिक्षा पद्धति में विद्यार्थियों पर पढ़ाई को लेकर कोई मानसिक दबाव नहीं हुआ करता था। लेकिन वर्तमान स्थिति ठीक इसके विपरीत है। किताबों के बोझ तले विद्यार्थी दबता जा रहा है। सभी विषयों में अच्छे अंक लाने का दबाव अपने सर में लिए घूम रहा है।

स्कूल में अच्छे अंक लाने की होड़, स्कूल के बाद अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिले की होड़ उसके बाद अच्छी नौकरी की होड़ बच्चों की जिंदगी इनमें ही जूझ रही है। बच्चे स्कूल और कोचिंग के बवंडर में ऐसे फंस गए हैं कि उन्हें खेलने का भी समय नहीं मिलता। जबकि खेलकूद मानसिक और शारीरिक विकास के लिए उतना जरूरी है जितना भोजन।

धर्मरहित शिक्षा

पौराणिक शिक्षा आध्यात्मिक शिक्षा हुआ करती थी। पुराणों के शिक्षा दी जाती थी। लेकिन आधुनिक ठीक इसके विपरीत है।

चूंकि भारत धर्म निरपेक्ष देश है। इसलिए हमें सभी धर्मों के बारे में पढ़ाना चाहिए, सिर्फ एक धर्म के बारे में शिक्षा देना सही नहीं। आधुनिक शिक्षा पद्धति में सभी धर्म के बच्चे सभी धर्मों के बारे में पढ़ाई कर रहे हैं और शायद यही आधुनिक शिक्षा पद्धति की खूबी है।

घूमना शिक्षा का हिस्सा

पौराणिक शिक्षा में दूसरे शिक्षा व्यवस्था को छोड़ दे तो वैदिक काल में घूमना शिक्षा का अहम हिस्सा माना जाता था। गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करने के बाद शिष्य दुनियाभर में घूमने निकल जाता था, घूमने के बाद ही शिष्यों की शिक्षा को संपन्न माना जाता था।

वर्तमान में स्कूल और कॉलेज की डिग्री ही काफी है। मतलब अब के विद्यार्थी जो प्रैक्टिकल करते हैं उसका असली जीवन में उपयोग नहीं कर पाते हैं।

प्रैक्टिकल नॉलेज ज्यादा-थ्योरी कम

पौरिणिक शिक्षा पद्धति प्रैक्टिकल नॉलेज की नींव पर खड़ी थी। शिष्यों की तीरअंदाजी, कला- कृतियाँ, घुड़सवारी सिखाना आदि।

आधुनिक शिक्षा में शिष्यों को थ्योरी नॉलेज ज्यादा दिया जाता है। प्रैक्टिक्ल काफी कम। सरकारी स्कूलों में प्रैक्टिक्ल नॉलेज न के बराबर।

शिक्षकों और शिष्यों में खास रिश्ता

शिक्षकों और शिष्यों में खास रिश्ता पौराणिक शिक्षा पर नज़र डालेंगे तो आप देख पाएँगे कि गुरू और शिष्यों को खास रिश्ता हुआ करता था। गुरू के लिए सभी शिष्य समान हुआ करते थे। गुरूकुल की कक्षा में कम बच्चे हुआ करते थे इसलिए गुरूओं का सभी शिष्यों के साथ तालमेल अच्छा हुआ करता था। शिष्य अपने गुरूओं के साथ विचार-विमर्श करते, चर्चाएं करते थे।

आधुनिक शिक्षा पद्धति में गुरू-शिष्य का रिश्ता इतना खास नहीं है। आज एक क्लास में इतने सारे बच्चे होते हैं कि अध्यापकों का सभी बच्चों के साथ तालमेल नहीं हो पाता।

उम्मीद है इस आर्टिकल को पढ़ने के बाद भारत की शिक्षा पद्धति को समझ पाएं होंगे। बाकी आपके ऊपर है आपको कौन- सी पद्धति ज्यादा बेहतर लगती है।

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