आजादी से भी पहले शुरू हो गया था तमिलनाडु में हिंदी का विरोध
आजादी से भी पहले शुरू हो गया था तमिलनाडु में हिंदी का विरोधSyed Dabeer Hussain - RE

आजादी से भी पहले शुरू हो गया था तमिलनाडु में हिंदी का विरोध, जानिए इतिहास

तमिलनाडु में हिंदी भाषा के विरोध का लंबा इतिहास रहा है। समय-समय पर तमिलनाडु में हिंदी भाषा के विरोध में कई बड़े आन्दोलन हुए हैं।

राज एक्सप्रेस। संसदीय राजभाषा समिति द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी गई रिपोर्ट को लेकर तमिलनाडु में एक बार फिर से हिंदी भाषा का विरोध शुरू हो गया है। हालांकि अभी तक रिपोर्ट को सार्वजानिक नहीं किया गया है, लेकिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने के प्रयासों को आगे नहीं बढ़ाने की सिफारिश की। दूसरी तरफ समिति के सदस्यों ने स्टालिन की प्रतिक्रिया को गैर जरूरी बताते हुए कहा है कि मीडिया में रिपोर्ट को लेकर चल रही ख़बरें भ्रामक हैं, क्योंकि राष्ट्रपति को सौंपी गई रिपोर्ट गोपनीय है। तो चलिए आज हम जानेंगे कि तमिलनाडु में हिंदी भाषा के विरोध का क्या इतिहास रहा है?

आजादी से पहले शुरू हुआ था विवाद :

तमिलनाडु में हिंदी भाषा का विरोध आजादी से पहले ही शुरू हो गया था। साल 1930 में जब मद्रास प्रेसीडेंसी में स्थानीय कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में हिंदी भाषा को अनिवार्य किया तो ईवी रामास्वामी और जस्टिस पार्टी ने इसका विरोध किया था । यह विरोध करीब तीन साल तक चला। इस दौरान 2 लोगों की जान भी चली गई। आख़िरकार कांग्रेस सरकार के इस्तीफे के बाद ब्रिटिश सरकार ने इस फैसले को वापस ले लिया।

आजादी के बाद भी जारी रहा विवाद :

साल 1946 से साल 1950 के दौरान भी एक बार फिर से देश के सभी सरकारी स्कूलों में हिंदी को वापस लाने की कोशिश की, लेकिन इसका भी रामासामी और डीके के नेतृत्व में जबरदस्त विरोध हुआ। इसके बाद साल 1953 में डीएमके ने कल्लुकुडी शहर का नाम बदलकर डालमियापुरम करने का भी विरोध किया।

एकमात्र आधिकारिक भाषा पर विवाद :

साल 1963 में आधिकारिक भाषा अधिनियम पारित किया गया, लेकिन अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रमुक ने इसका विरोध शुरू कर दिया। माहौल बिगड़ता देख कांग्रेस के मुख्यमंत्री एम भक्तवचलम अंग्रेजी, तमिल और हिंदी का फॉमूर्ला लेकर आए। इसके बाद साल 1965 में हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर भी भारी विरोध हुआ। इस विरोध के चलते लाल बहादुर शास्त्री की सरकार के दो मंत्रियों को इस्तीफा भी देना पड़ा। आख़िरकार बढ़ते विरोध को देखते हुए सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा।

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