शिक्षा का वेस्टर्न रंग, हिंदी अक्षर ज्ञान से मोह भंग!

मिशनरी स्कूलों में हिंदी के बजाए अंग्रेजी और अंग्रेजियत को मिल रही तवज्जो, माथे की बिंदी हिंदी और भारतीय संस्कृति के लिए खतरे की घंटी है।
नौनिहालों को ककहरा और हिंदी के आधार अंकों का आधा अधूरा ही ज्ञान है।
नौनिहालों को ककहरा और हिंदी के आधार अंकों का आधा अधूरा ही ज्ञान है।Syed Dabeer Hussain - RE

हाइलाइट्स –

  • पश्चिमी शिक्षा का बढ़ता वर्चस्व

  • हिंदी के लिए घातक या मददगार?

  • भारतीय संस्कृति पर हावी अंग्रेजियत!

राज एक्सप्रेस। मिशनरीज स्कूलों में हिंदी भाषा के प्रति बरती जा रही कोताही से युवा पीढ़ी में हिंदी अक्षर ज्ञान के प्रति पैदा हो रही अरुची भारतीय संस्कृति के लिए खतरनाक है। मिशनरी स्कूलों में अंग्रेजियत का भाव बचपन से ही बच्चों के दिमाग में जिस कदर भरा जा रहा है उससे भारतीय संस्कार और संस्कृति को इतिहास का विषय बनते देर नहीं लगेगी।

इंग्लिश फर्स्ट –

भारत छोड़ने के पहले अंग्रेजों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा के बीज बो दिये थे। भारत में पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के मिशन के तहत संचालित मिशनरीज स्कूलों में शुरुआत से ही अंग्रेजी को वरीयता की मुहर है।

पश्चिमी देशों से संबद्ध सामाजिक संस्थाओं के संचालित स्कूलों या शिक्षण संस्थानों में इंग्लिश फर्स्ट है। कई शिक्षण संस्थानों में तो हिंदी बोलने पर जुर्माने तक के मामले सामने आ चुके हैं।

वसुधैव कुटुंबकम –

‘पूरी धरती हमारा कुटुंब है’ ध्येय वाक्य के प्रणेता भारत में खुद वर्तमान पीढ़ी; हिंदी के प्रति जो अरुची या हीन भावना दिखा रही है वो सोचनीय है। दूसरे देश की संस्कृति-भाषा-ज्ञान को सीखने के लिए अपने हिंदी भाषायी मूल आधार का तिरस्कार पीढ़ी को खतरे में डाल सकता है।

ऐसा भी नहीं कि अति हिंदी प्रेम के चलते पश्चिमी या दूसरी भाषाओं को हिकारत की नजरों से देखा जाए बल्कि यदि अन्य राष्ट्रों से प्रतिस्पर्धा में बने रहना है तो भारतीयों को प्राथमिक से लेकर कुशल ज्ञान तक में हिंदी को प्राथमिकता देकर दूसरे देशों के भाषायी ज्ञान पर भी महारत हासिल करना होगी।

ड्रैगन की नीति -

इस मामले में चीन पूरी दुनिया के सामने सबसे जुदा है। यहां चीनी भाषा 'मन्दारिन' एवं स्थानीय अन्य भाषाएं ही संपूर्ण राष्ट्र में प्रचलित हैं। अन्य भाषायी प्रवेश चीन में लगभग न के बराबर है। चीन के इंटरनेट सर्च एंजिन से लेकर तमाम सूचना जाहिर करने वाले बोर्ड्स पर चीनी संकेतों में ही जानकारी प्रदान की जाती है।

अंग्रेजी यहां (चीन) वैकल्पिक शिक्षा का विषय है अनिवार्य नहीं। दूसरे देशों की भाषा, संस्कृति, परंपरा जानने के लिए मौजूदा चाइनीज पीढ़ी अभी भी ह्वेनसांग के नक्शे कदम पर चलना नहीं भूली है। इसे चीन की सफलता का मुख्य आधार माना जा सकता है।

बोको हरम का कदम –

हाल ही में नाइजीरिया में बोको हरम के आतंकियों ने पश्चिमी शिक्षा के विरोध में एक स्कूल में पढ़ने वाले 300 से ज्यादा स्टूडेंट्स का अपहरण कर लिया। रिपोर्ट्स में जारी ऑडियो के मुताबिक खतरनाक आतंकी संगठन के लीडर अबुबाकर शेकू का मानना है कि “पश्चिमी शिक्षा देने वाले स्कूलों में बच्चों को इस्लाम की बुनियादी तालीम के बजाय गलत शिक्षा दी जा रही थी। पश्चिमी शिक्षा इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है।”

ककहरा और अंक नहीं पता –

जिस भावी पीढ़ी से आत्म निर्भर भारत के सपने देखे जा रहे हैं उस पीढ़ी के नौनिहालों को ककहरा यानी कि क, ख, ग जैसे अक्षरों और हिंदी के शून्य से लेकर नौ तक के आधार अंकों का आधा अधूरा ही ज्ञान है। इंटरनेट पर हिंग्लिश लिखने के विकल्प की तकनीकी निर्भरता ने तो भारतीय जनमानस को और आलसी बना दिया है।

“प्राथमिक, मिडिल से लेकर कॉलेज में पढ़ने वालों तक में अंग्रेजी के अक्षरों और अंकों के बारे में जो पहचान, समझ और ज्ञान की स्पष्टता है वह हिंदी अक्षरों और अंकों के मामले में ढूंढ़े नहीं मिलती। आश्चर्य होता है कि वर्तमान पीढ़ी हिंदी अंक सात को अंग्रेजी अंक सिक्स (6) पढ़ने की भूल कर बैठती है।”

डॉ. लोकेश उपाध्याय, हिंदी साहित्य समीक्षक

हिंग्लिश हावी –

सोशल मीडिया पर टाइपिंग के विकल्पों ने भारतीय पीढ़ी के दिमाग में जाला बुनना शुरू कर दिया है। बोलकर टाइप करने की सुविधा के साथ ही अंग्रेजी अक्षरों से हिंदी शब्द विन्यास (bharat ki jai) बनाने की जुगत के प्रचलन में आने से भी हिंदी की पहचान को धक्का पहुंच रहा है। अब लोगों के रोजमर्रा के जीवन में हिंदी शब्दों के बजाए हिंग्लिश शब्द तेजी से स्थान लेते जा रहे हैं, वो भी अशुद्धता के साथ।

“डेढ़, पौने दो, सवा, पसेरी जैसे वजन के गणित चुटकियों में हल करने में महारत रखने वाले भारतीय अब इंग्लिश न्यूमेरिक्स के फेर में ऐसे उलझे हैं कि साधारण से जोड़-घटाने तक के लिए कैल्कुलेटर की जरूरत पड़ रही है। अंग्रेजी जरूर सीखी जाए लेकिन हिंदी को तिलांजलि देकर नहीं।”

प्रतीक गोखले, हिंदी सेवा संघ, नागपुर

भारतीय संस्कारों से किनारा –

देखने में आया है कि मिशनरी एजुकेशन सेंटर्स में पढ़ रहे कई स्टूडेंट्स भारतीय तीज-त्योहारों, धार्मिक ग्रंथों, कहानियों, सीखों से तक किनारा करने लगे हैं। इन्स्टेंट फूड की दीवानी नई जनरेशन को पारंपरिक त्यौहारों को मनाने के कारणों तक की जानकारी नहीं।

अंग्रेजी मीडियम की नई पीढ़ी क्रिसमस, न्यू ईयर, वेलेंटाइन डे जैसे स्पेशल डेज़ की चमकीली दुनिया में इस कदर तल्लीन होती जा रही है कि उसे नव संवत्सर, दीपावली, भाई दूज, बसंत पंचमी जैसी भारतीय परंपराओं से जैसे कोई लेना-देना ही न हो। बच्चे ही क्या अब तो बड़े-बुजुर्ग भी इंटरनेट पर सोशल मीडिया के जरिये शुभकामना संदेशों का हैप्पीकरण करने में मशगूल हैं।

कुल मिशनरीज स्कूल –

वेबसाइट सीबीसीआई एजुकेशन (cbcieducation.com) पर उल्लेख है कि “कैथोलिक चर्च भारत में शिक्षा को बढ़ावा देने में अग्रणी रहा है। वास्तव में, यूरोप के बाहर कहीं भी पहला औपचारिक ईसाई शैक्षिक उद्यम गोवा में सांता फ़े स्कूल था। इसके बाद जल्द ही भारत के अन्य हिस्सों में और अधिक ईसाई स्कूल दिखाई दिए।

वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक भारत में पहली बार गर्ल्स स्कूल मिशनरियों ने 1819 में कोट्टायम में शुरू किया था। यहां यह भी उल्लेख है कि साल 2000-2001 की सीबीसीआई आयोग के राष्ट्रीय केंद्रों और क्षेत्रीय बिशप परिषदों की रिपोर्ट के अनुसार केरल के मन्नाराम में कैथोलिक चर्च ने 1846 में एक संस्कृत विद्यालय शुरू कराया था।

आजादी के बाद, शिक्षा में चर्च की व्यापक भागीदारी हुई है। हालांकि क्रिस्चियन कुल आबादी का केवल 1.7% हिस्सा हैं। वेबसाइट पर उल्लेख है कि; कैथोलिक चर्च दुनिया में सबसे बड़े शिक्षा प्रदाता केंद्र हैं। दर्शाए गए आंकड़ों के मुताबिक भारत में कैथोलिक शैक्षिक संस्थानों की संख्या 54,937 है।

इनमें कुल 12 मेडिकल कॉलेज और विश्वविद्यालय, 25 प्रबंधन संस्थान, 300 पेशेवर कॉलेज/इंजीनियरिंग संस्थान, 450 डिग्री कॉलेज, 5500 जूनियर कॉलेज, 15000 हाई स्कूल, 10500 माध्यमिक विद्यालय शामिल हैं।

नई शिक्षा नीति –

भारत में इस साल 29 जुलाई 2020 को नई शिक्षा नीति घोषित हुई है। साल 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला बड़ा बदलाव है। नई नीति में कक्षा पांचवीं तक शिक्षा में मातृ भाषा/स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है। साथ ही मातृ भाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा में प्राथमिकता देने का सुझाव है।

“नई शिक्षा नीति के बाद भारत ज्ञान की महाशक्ति बनकर उभरेगा। नई शिक्षा नीति को व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया। विशेषज्ञों से लेकर जन प्रतिनिधियों तक से गहन चर्चा, परामर्श के बाद इसे तैयार किया गया। सवा 2 लाख सुझाव आए थे। उच्च शिक्षा और स्कूली शिक्षा के लिए अलग-अलग टीमें बनाई गई थीं।”

रमेश पोखरियाल निशंक, केंद्रीय मानव संसाधान विकास मंत्री

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New Education Policy: नई शिक्षा नीति भारत ज्ञान की महाशक्ति बनकर उभरेगा

कोरोना का दंश -

नई शिक्षा नीति लागू होती इससे पहले कोरोना जनित परिस्थितियों के कारण भारत में स्कूल सत्र प्रभावित हो गए। ऐसे में खुद भारतीयों का भी यह फर्ज होना चाहिए कि वह अंग्रेजियत का लबादा ओढ़ने के बजाए हिंदी, संस्कृत और भारत की प्रादेशिक भाषाओं की ठेठ भारतीय संस्कृति को जिंदा रखने में अपना योगदान पूरे मनोयोग से दे।

प्रत्येक भारतीय का हिंदी के प्रति यह सम्मान बॉर्डर पर मोर्चा लेने वाले किसी वीर सिपाही की ही तरह देश हित, संस्कृति सुरक्षा में अतुलनीय योगदान होगा। वरना मिशनरी स्कूलों में हिंदी के बजाए अंग्रेजी और अंग्रेजियत को मिल रही तवज्जो, माथे की बिंदी हिंदी और भारतीय संस्कृति के लिए खतरे की घंटी तो है ही।

डिस्क्लेमर आर्टिकल प्रचलित रिपोर्ट्स पर आधारित है। इसमें शीर्षक-उप शीर्षक और संबंधित अतिरिक्त प्रचलित जानकारी जोड़ी गई हैं। इस आर्टिकल में प्रकाशित तथ्यों की जिम्मेदारी राज एक्सप्रेस की नहीं होगी।

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