बाढ़ और सूखे की दुविधा

जल प्रबंधन की परियोजनाएं बनना और लागू होना एक-दो माह का काम नहीं होता, बल्कि इसके लिए चार-छह साल का वक्त लगता है।
बाढ़ और सूखे की दुविधा
बाढ़ और सूखे की दुविधाSyed Dabeer Hussain - RE

राज एक्सप्रेस, भोपाल। देश में मानसून के मुख्य चार महीने ही होते हैं। दो माह गुजरने को हैं। मौजूदा स्थिति यह है कि अब तक औसत से 17 फीसद पानी कम गिरा है। यानी इस साल सूखे का अंदेशा और ज्यादा बढ़ गया। हालांकि अभी पूरा मानसून गुजरा नहीं है। दो महीने और बचे हैं। हो सकता है कि ताबड़तोड़ बारिश हो जाए और इस साल पूरे मानसून में सामान्य बारिश का सरकारी अनुमान सही भी साबित हो जाए। लेकिन दो महीने में अगर औसत से सवा गुनी बारिश हो गई तो देश में कई जगह भयावह बाढ़ का खतरा खड़ा हो जाएगा। देश में इस समय तक जो हालात बने हैं, उनसे भयानक बाढ़ या भीषण सूखे के आसार बराबर के बन गए हैं। ऐसे हालात को प्रबंधन प्रौद्योगिकी के लिहाज से भी देखा जाना चाहिए।

बीस दिन पहले तक देश के कई क्षेत्रों में सूखे जैसे हालात बन रहे थे। जून महीने में बारिश औसत से 33 फीसद कम हुई थी। पिछले महीने मीडिया में सूखे तालाबों में गड्ढे खोद कर पानी ढूंढने और टैंकरों से पानी लेने के लिए लंबी-लंबी कतारों की तस्वीरें छप रही थीं। उसके बाद जुलाई में पांच-सात दिन कुछ ज्यादा बारिश हो गई और देश में कई जगह बाढ़ के हालात तक बन गए। हैरत इस बात पर होनी चाहिए कि जुलाई के चौथे हफ्ते तक देश में कुल बारिश औसत से सत्रह फीसद कम हुई है, इसके बावजूद कई क्षेत्र बाढ़ की चपेट में हैं। यानी इस साल के मानसून की बेतरतीब चाल ने इस दुविधा में डाल दिया है कि हम बाढ़ से ज्यादा चिंतित हों या सूखे से? या इस बार बाढ़ और सूखा दोनों ही संकटों से निपटने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए? एक ही साल में बाढ़ और सूखे की स्थिति को मानसून की गड़बड़ी की बजाय जल प्रबंधन के नजरिए से देखने की दरकार है।

जल विज्ञानी और जल प्रबंधक कई साल से बार-बार बताते आ रहे हैं कि देश में पानी की समस्या का समाधान बारिश से मिले खरबों घनमीटर पानी को रोक कर रखने से ही संभव है। यही एकमात्र उपाय है जो बाढ़ और सूखे से निजात दिला सकता है। इसीलिए इस साल बांध और जलाशयों में पानी रोक कर रखने की मौजूदा स्थिति पर नजर डालनी जरूरी है। देश के बांधों व जलाशयों पर हफ्ते दर हफ्ते निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) के मुताबिक, इस समय तक देश के सभी मुख्य बांधों में सिर्फ 257 अरब घनमीटर पानी रोक कर रखने की व्यवस्था है। गौरतलब है कि देश की धरती पर बरसे कुल पानी में हर साल हमें औसतन एक हजार आठ सौ अरब घनमीटर पानी उपलब्ध होता है। बाकी पानी नदियों को उफनाता और बाढ़ की तबाही मचाता समुद्र में वापस चला जाता है। यही नहीं, अपने बांधों की 257 अरब घनमीटर क्षमता भी कहने को ही है, क्योंकि मानसून के बाद इस्तेमाल के लिए इन बांधों की पानी जमा करने की क्षमता (लाइव स्टोरेज) सिर्फ 161 अरब घनमीटर ही है। बाकी 96 अरब घनमीटर पानी वह है जिसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। यह डेड स्टोरेज कहलाता है। कई कारणों से इस पानी को निकालने की मनाही होती है। डेड स्टोरेज इसलिए बनाया जाता है ताकि भूजल रिचार्ज होता रहे और उस इलाके का पारिस्थितिकी संतुलन बना रहे। डेड स्टोरेज पानी के साथ बह कर आने वाली मिट्टी के कारण बांध को जल्दी बेकार हो जाने से भी रोकते हैं।

जल आयोग के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 161 अरब घनमीटर संभरण क्षमता वाले बांधों में जुलाई माह के आखिरी सप्ताह तक सिर्फ 40 अरब घनमीटर पानी ही भरा जा सका है। पिछले साल इस समय तक यह आंकड़ा 65 अरब घनमीटर का था। उस हिसाब से इस साल अब तक जल भंडारण पिछले साल से 38 फीसद कम हुआ है। यहां इस बात पर गौर होना चाहिए कि पिछले साल सामान्य से छह फीसद ही कम बारिश हुई थी, मगर देश का लगभग आधा हिस्सा सूखे की चपेट में आ गया था। इसका एक मतलब यह निकलता है कि इस साल के हालात पिछले साल से ज्यादा गंभीर हैं। हालांकि, यह अलग बात है कि देश का मौसम विभाग अभी भी पूरे मानसून में औसतन सामान्य वर्षा की उम्मीद में है। लेकिन यह हिसाब अभी नहीं लगा है कि अगर मानसून के बाकी बचे समय में औसत से 20 फीसद ज्यादा बारिश हो गई तो बाढ़ से तबाही का आकार कितना बड़ा होगा। और अगर सामान्य से ज्यादा बारिश न हुई तो सूखा पड़ना लगभग तय है। बेशक, यह ऐसी आफत है जिसका फौरन ही कोई हल नहीं निकाला जा सकता। जल प्रबंधन की परियोजनाएं बनना और लागू होना कोई एक-दो महीने का काम नहीं होता, बल्कि इसके लिए चार-छह साल का वक्त लगता है। फिलहाल कुछ कर सकते हैं तो बस इतना कि बाढ़ और सूखे के बाद राहत व दूसरे काम की तैयारियां अभी से कर लें।

उससे बड़ा काम तो यह होना चाहिए कि देश में जल संभरण या संचयन की बड़ी योजनाओं पर सोचना शुरू कर दें। खासतौर पर वैसी जल योजनाएं जो थोक में पानी को रोक कर सकती हों। फिर कुदरती आपदाओं से कम से कम नुकसान हो, इसकी कोशिशें अभी से होनी चाहिए। और अगर बाढ़ और सूखे से बचाव करना है तो बारिश के पानी को नदियां उफनाते हुए, बाढ़ की तबाही मचाते हुए वापस सुमुद्र में जाने से रोकने के लिए नए बांध और जलाशय बनाने पर सोचना ही पड़ेगा। वैसे इस काम के लिए भी हमने अपने लिए बहुत सारे व्यवधान खड़े कर रखे हैं। इससे अलग एक मसला यह भी है कि जो बांध, झीलें, तालाब आदि देश में मौजूद हैं उनमें से कई अपनी क्षमता के मुताबिक पूरे भर नहीं पा रहे हैं। ये बांध और तालाब क्यों नहीं भर पाते हैं, कम से कम इसके कारणों को खत्म करने के काम पर फौरन ही लगा जा सकता है। मसलन जिस भी बांध, जलाशय या दूसरे जल निकाय के जल ग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) में गड़बड़ियां पैदा कर दी गई हैं, उन्हें फौरन सुधारा जाए। जल ग्रहण क्षेत्र वह क्षेत्र होता है जहां बरसा पानी किसी जल निकाय में जाकर जमा होता है। लेकिन कई जगह ऐसी सड़कें या रिहायशी इमारतें बन गई हैं कि जलाशय तक पानी जाने के रास्ते ही बंद हो गए हैं।

यही कारण है कि अच्छी बारिश के बावजूद कई बांध, तालाब और कुंड भर ही नहीं पाते और इसी कारण शहरी इलाकों में जलभराव व बाढ़ की समस्या बढ़ गई है। इसी वजह से जमीन के भीतर भी पानी नहीं पहुंच पाता। जल विज्ञान के विशेषज्ञ इसके समाधान के लिए ‘जलग्रहण क्षेत्र उपचार’ (कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट) नाम का एक उपाय सुझाते हैं। हाल फिलहाल अगर और कुछ न हो सकता हो तो सरकार कम से कम ऐसे उपायों पर विचार-विमर्श तो शुरू करवा ही सकती है। इस बात पर विवाद की कोई गुंजाइश नहीं है कि जल संचयन की परियोजनाएं बहुत खर्चीली हैं। बांधों-तालाबों से गाद निकालने का काम भी खर्चीला है। जलग्रहण क्षेत्र उपचार का काम भी भारी-भरकम है। साल दर साल बाढ़ और सूखे के कारण देश की आर्थिक वृद्धि दर पर बुरा असर पड़ रहा है। इसलिए जल संचयन पर ज्यादा खर्च करना भी मुनाफे का सौदा साबित हो सकता है।

जल संरक्षण की बात रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर चुके हैं। इससे पहले भी उन्होंने सांसदों से जल संरक्षण की पहल करने का अनुरोध किया था। चूंकि, लगातार घटते भूजल की समस्या का हमें पता है और यह समस्या अब किसी से अछूती नहीं रह गई है, सो हम सभी को इस दिशा में पहल शुरू करनी होगी।

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