यूपी उपचुनाव नतीजे में छिपे संदेश

भारतीय जनता पार्टी इस नुकसान के कारणों पर गौर नहीं फरमाई और जनता के मिजाज को भांपने में कोताही बरती तो भविष्य में नुकसान के क्षेत्रफल का विस्तार होते देखने के लिए तैयार रहना होगा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति
उत्तर प्रदेश की राजनीतिPankaj Baraiya - RE

राज एक्सप्रेस। उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव परिणाम कई गंभीर निहितार्थो को समेटे है। यह परिणाम उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा और दशा तय करने के साथ ही सभी दलों के लिए एक कड़ा संदेश भी है। इस परिणाम ने रेखांकित किया है कि चाहे सरकार हो अथवा विपक्ष अगर वे जनता की कसौटी पर खरा नहीं उतरते हैं तो जनता उन्हें नजरों से उतारने में देर नहीं करती। मतदाताओं ने साबित किया है कि वे अपने मताधिकार को लेकर जागरूक हैं और अब उन्हें न तो जाति-क्षेत्र की झासेंबाजी से गुमराह किया जा सकता है और न ही खोखले वादे से भ्रमित। जनता को सिर्फ विकास चाहिए और अब वह इसे ही पैरामीटर मानकर दलों व उम्मीदवारों का आंकलन व मूल्यांकन कर रही है। उपचुनाव के नतीजों पर नजर दौड़ाएं तो इसमें ऐसे ही संकेत छिपे हुए हैं। आंकड़ों के मुताबिक सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर आठ सीटें जीतने में कामयाब हुई है। लेकिन उसे एक सीट का नुकसान भी उठाना पड़ा है।

भाजपा को यह नुकसान भले ही छोटा दिखे मगर उसे समझना होगा कि नुकसान के बीज इसी छोटे नुकसान में ही अंकुरित व पल्लवित होते हैं। अगर भारतीय जनता पार्टी इस नुकसान के कारणों पर गौर नहीं फरमाई और जनता के मिजाज को भांपने में कोताही बरती तो भविष्य में नुकसान के क्षेत्रफल का विस्तार होते देखने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए कि राजनीति में धारणाओं का विशेष महत्व होता है और इस उपचुनाव के नतीजों से साबित हुआ है कि भारतीय जनता पार्टी अजेय नहीं है और उसे पराजित किया जा सकता है। कल तक निराशा के भंवर में डूबी समाजवादी पार्टी ने तीन सीटें जीतकर कुछ इसी तरह का संदेश देने का काम किया है। भले ही उसकी यह छोटी-सी जीत हो लेकिन इस जीत ने उसे ऊर्जा से भर दिया है। कहा भी जाता है कि एक बड़े वृक्ष की संभावना छोटे से बीज में ही निहित होती है। सपा की यह छोटी-सी जीत ही उसके लिए सत्ता तक पहुंचने के मार्ग बन सकती है। इस जीत से सपा गदगद है। इसलिए और भी कि उसकी गिरती साख व कमजोर होती प्रासंगिकता को लेकर सवाल लगातार उठाए जा रहे थे।

लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन के बावजूद भी पार्टी को मिली करारी हार पर अखिलेश सवालों के घेरे में थे। लेकिन उपचुनाव में मिली जीत ने उन पर उठने वाले सवालों को थाम लिया है। एकला चलना उनके लिए फायदे में रहा। सपा की इस जीत ने उत्तर प्रदेश में विपक्ष की रिक्तता और शून्यता को लेकर उठ रहे सवालों पर भी विराम लगाया है। अब 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्तापक्ष के समक्ष समाजवादी पार्टी ही मुख्य लड़ाई के तौर पर दिखने का प्रयास करेगी। उसकी बढ़ती ताकत से भाजपा से इतर विचारधारा रखने वाले छोटे-छोटे सियासी दल समाजवादी पार्टी की ओर आकर्षित हो सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो नि:संदेह जमीन पर समाजवादी पार्टी मजबूत होगी और अगर समाजवादी पार्टी मजबूत हुई तो फिर सपा से अलग हुई शिवपाल यादव की प्रसपा का सपा में विलय संभव नहीं होगा। गौर करें तो मौजूदा स्थिति समाजवादी पार्टी के लिए अनुकूल है। इसलिए कि इस उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के पक्ष में अल्पसंख्यक मतों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ है। यानी कह सकते हैं कि इस उपचुनाव में विपक्षी दलों में सपा सबसे ज्यादा फायदे में रही। कांग्रेस की बात करें तो इस उपचुनाव में उससे बहुत अच्छा प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी और हुआ भी वैसा ही। सीटों की हार-जीत के लिहाज से इस बार भी कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी है। लेकिन उसका मत प्रतिशत बढ़कर 12.80 हो गया है। 2017 के चुनाव में उसे 6.25 प्रतिशत मत मिला था।

दो राय नहीं कि प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस कई मसलों पर सड़कों पर उतरी और आंदोलन किया और उसका फायदा मत प्रतिशत में इजाफे के तौर पर हुआ है। दूसरी ओर प्रियंका गांधी द्वारा संगठन में आमूलचूल परिवर्तन कर बुजुर्ग नेताओं को किनारे लगाया जाना और बड़े पैमाने पर युवाओं को शामिल किया जाने का असर भी दिखा है। गौर करें तो उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस सबसे ज्यादा मत प्रतिशत बढ़ाने वाली पार्टी के तौर पर उभरी है। उसके लिए यह शुभ संकेत है। उसने रेखांकित किया है कि वह प्रदेश से मुक्त नहीं हुई है। लेकिन उसे सत्ता तक पहुंचने के लिए ढेर सारी चुनौतियों का सामना करना होगा। इस उपचुनाव में सबसे अधिक नुकसान बहुजन समाज पार्टी को हुआ है। उसका हाथ खाली है। लोकसभा चुनाव में 10 सीटें जीतने के बाद उसका हौसला सातवें आसमान पर था। उसी जीत से उत्साहित होकर उसने पहली बार उपचुनाव में किस्मत आजमाने का फैसला लिया। लेकिन सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। उसके हिस्से में एक भी सीट नहीं आई। यहां तक कि उसे अपनी एक सीट भी गंवानी पड़ी और आधा दर्जन उम्मीदवारों की जमानत तक जप्त हो गई।

कई स्थानों पर वह कांग्रेस से पीछे चौथे स्थान पर खिसक गई। उसके मत प्रतिशत में भी काफी गिरावट आई है। दरअसल बसपा की रणनीति उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन के जरिए मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उसकी ओर से 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी चुनौती का संदेश देना था। साथ ही यह भी साबित करना था कि लोकसभा चुनाव में जो सफलता मिली वह उसकी नीतियों व सिद्धांतों के बदौलत मिली न कि सपा से गठबंधन के कारण। लेकिन उसके सब सपने चकनाचूर हो गए। उसे अपनी ताकत अहसास कराने का मौका तब मिलता जब नतीजे उसके पक्ष में होते। लेकिन नतीजों ने ही उसकी पोल खोल दी है। नतीजों से साफ है कि बसपा की सियासी जमीन सिकुड़ रही है। कोर वोटबैंक यानी दलित समुदाय का अब उससे मोहभंग होने लगा है। गैर-जाटव दलित पहले ही दूरी बना चुके हैं।

अब कह सकते हैं कि गैर-जाटव दलित जातियां भाजपा के साथ हैं। प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा की अधिकांश सुरक्षित सीटें भाजपा ने जीती है। बसपा की हार ने रेखांकित किया है कि उसे 2019 लोकसभा चुनाव में जो 10 सीटें मिली वह सपा से गठबंधन के कारण मिली। अन्यथा उसका हश्र 2014 लोकसभा चुनाव की तरह ही होता। बहरहाल इस स्थिति के लिए खुद मायावती जिम्मेदार है। उन्होंने जिस तरह कांशीराम के समय से जुड़े ताकतवर नेताओं को पार्टी से बाहर कर मनमानी दिखाई और परिवार के लोगों के हाथ पार्टी की कमान सौंपती देखी गई उससे दलित समाज में कोई अच्छा संदेश नहीं गया है। दलित समाज में धारणा बनी है कि बसपा भी अन्य दलों की तरह परिवारवादी पार्टी बनने की राह पर है। दूसरी ओर जिस तरह बसपा सुप्रीमो मायावती ने लोकसभा चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी पर गंभीर आरोप लगाकर गठबंधन को तोड़ने का ऐलान किया उससे भी पार्टी की छवि पर बट्टा लगा है। बसपा सुप्रीमों की छवि एक मौकापरस्त नेता की बनी है।

गौर करें तो 2007 में जब यूपी में बसपा की सरकार बनी तो लगा था कि उसके विजयी रथ को रोकना आसान नहीं होगा। उसकी सोशल इंजीनियरिंग की देश भर में चर्चा रही। लेकिन 2012 के चुनाव में करारी शिकस्त मिली। 2007 के बाद दो विधानसभा और तीन लोकसभा के चुनाव हो चुके हैं और इन सभी चुनावों में बसपा की स्थिति मजबूत होने के बजाए कमजोर हुई है। जनाधार घटा है। 2022 के विधानसभा चुनाव में उसे मुख्य मुकाबले में आने के लिए अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा। बसपा ही नहीं बल्कि अन्य सभी दलों के लिए भी यह उपचुनाव सीख देने वाला है।राज एक्सप्रेस, भोपाल। उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव परिणाम कई गंभीर निहितार्थो को समेटे हैं। यह परिणाम उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा और दशा तय करने के साथ ही सभी दलों के लिए एक कड़ा संदेश भी है। देखना दिलचस्प होगा कि इस नतीजे से उत्साहित और हतोत्साहित होने वाले सियासी दल अपनी रणनीति में क्या फेरबदल करते हैं?

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