बच्चों में दूर करना होगा गणित का डर

आठवीं क्लास से पासआउट होने वाले आधे से अधिक बच्चे सामान्य गणित हल तक नहीं कर सकते, वहीं 1/4 बच्चे पढ़ तक नहीं सकते हैं। यह हालत इसलिए है, क्योंकि हम पढ़ाई का तरीका बदलने पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं।
बच्चों में गणित का डर
बच्चों में गणित का डरPankaj Baraiya - RE

राज एक्सप्रेस। सवा सौ साल पहले तमिलनाडु के इरोड में जन्मे महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन की पारिवारिक पृष्ठभूमि गणित की नहीं थी, जिस पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में वे थे, उसमें गणित के क्षेत्र में उनका कोई मददगार भी नहीं था पर औपचारिक पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाले रामानुजन ने लंदन के ट्रिनिटी कॉलेज में प्रोफेसर लिटिलवुड के साथ मिल कर किए शोधकार्यो और प्रोफेसर हार्डी के निर्देशन में गणित की नई स्थापनाओं के जरिए पूरे संसार में हलचल मचा दी थी। रामानुजन की प्रतिभा के मद्देनजर 28 फरवरी-1918 को रॉयल सोसायटी ने उन्हें अपना सदस्य बना कर सम्मानित किया और ट्रिनिटी कॉलेज ने भी उन्हें अपना फैलो चुना। ‘हाइली कंपोजिट नंबर’ शीर्षक के अनुसंधान-कार्य ने उन्हें न सिर्फ पहले बीए और फिर पीएचडी की उपाधि दिलाई, बल्कि उनके शोध-प्रबंध का सार ‘जर्नल ऑफ लंदन मैथेमैटिकल सोसाइटी’ में छपा- जिसके बारे में दावा है कि, उस समय तक ऐसा विद्वत्तापूर्ण आलेख उस जर्नल में नहीं छपा था। गणित में भारतीय मेधा के रूप में रामानुजन का उल्लेख आज के संदर्भ में इसलिए जरूरी हो जाता है कि, एक ओर दुनिया में फिर से गणित की उपयोगिता का दायरा बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर शून्य के आविष्कारक देश के रूप में प्रतिष्ठित भारत में इस विषय को लेकर कोई सनसनी नहीं दिखती।

यहां तक पिछले साल जब भारतीय मूल के प्रतिभाशाली गणितज्ञ मंजुल भार्गव को मैथमेटिक्स का फील्ड्स मेडल दिया गया, तो भी यह सवाल लोगों के जेहन में गूंजता रहा कि, क्या ये उपलब्धियां भारतीय बच्चों और युवाओं में गणित के प्रति कोई उल्लेखनीय लगाव पैदा कर पाएंगी। दुनिया में फील्ड्स मेडल को नोबेल के समकक्ष माना जाता है और विशेषज्ञों का मत है कि, इसे हासिल करना नोबेल पाने से भी ज्यादा कठिन है। पर जहां तक गणित के क्षेत्र में भारतीय मेधा का सवाल है, एक से बढ़ कर एक उदाहरण होने के बावजूद युवाओं में गणित से दूर भागने का रुझान दिखाई देता है। एनजीओ प्रथम की हाल में आई रिपोर्ट इसी तथ्य को इंगित करती है। आज भले ही देश में शिक्षा का अधिकार लागू होने से इस बात की आश्वस्ति मिल गई हो कि, ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कूल में पढ़ें और कम ही स्कूल छोड़ने पर मजबूर हों, लेकिन सच्चाई यह है कि, आठवीं क्लास से पासआउट होने वाले आधे से अधिक बच्चे सामान्य गणित तक नहीं कर सकते। वहीं एक चौथाई बच्चे तो पढ़ तक नहीं सकते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ सालों में बच्चों में सीखने की प्रक्रिया कुछ बेहतर हुई है। आठवीं क्लास में पढ़ने वाले 56 फीसदी छात्र तीन अंकों की संख्या को एक अंक के नंबर से भाग नहीं दे सकते हैं। वहीं पांचवीं क्लास के 72 फीसदी बच्चे भाग तक नहीं दे सकते हैं, जबकि तीसरी क्लास के 70 प्रतिशत बच्चे घटाना नहीं कर सकते। यह स्थिति एक दशक पहले से काफी बदतर है। साल 2008 में पांचवीं क्लास के 37 फीसदी बच्चे सामान्य गणित कर लेते थे, जबकि आज के समय यह संख्या 28 प्रतिशत से कम है। साल 2016 में तो यह आंकड़ा महज 26 प्रतिशत रह गया था। बच्चों के अंदर पढ़ सकने की भी समस्या आ रही है। देश भर में हर चार में से एक बच्चा पढ़ने की सामान्य स्किल की कमी की वजह से आठवीं क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ दे रहा है। गणित की बेसिक जानकारी में लड़कियां, लड़कों से काफी पीछे हैं। केवल 44 फीसदी लड़कियां ही भाग कर सकती हैं, जबकि लड़कों में यह संख्या 50 फीसदी है। हालांकि हिमाचल प्रदेश, पंजाब, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु में आंकड़ा उलटा है, जहां लड़कियां काफी बेहतर कर रही हैं। यह सभी आंकड़े देश के 28 विभिन्न राज्यों के 596 जिलों से कलेक्ट किए गए हैं। 3 से 16 साल के आयु वर्ग में 3.5 लाख परिवार और 5.5 लाख बच्चे शामिल हैं।

अभी जो स्थिति है, उसमें हमारे देश में बच्चे मामूली जोड़-घटाव और गुणा करने तक के लिए कैलकुलेटर, मोबाइल फोन या कम्प्यूटर पर ही आश्रित नहीं हुए हैं, बल्कि वे गणित को आनंद का विषय भी नहीं मानते। गणित आनंद का विषय (जॉय ऑफ मैथ्स) हो सकता है- इस बारे में एक स्थापना महान गणितज्ञ जीएच हार्डी की है, जिन्होंने अपनी किताब ‘अ मैथमेटिशियन अपोलॉजी’ में यह बात स्वीकार की है कि, भले ही अप्लाइड मैथ्स (व्यावहारिक गणित) को तुच्छ और नीरस माना जाता है, पर इसके दार्शनिक रोमांच और इसकी स्थायी एस्थेटिक वैल्यू यानी आनंद से इनकार नहीं किया जा सकता। हार्डी का बयान दार्शनिक कोटि का है और उन्होंने एप्लाइड मैथ्स की प्योर (विशुद्ध) मैथ्स से जो तुलना की है, आज वह बेमानी हो चुकी है, क्योंकि इन दोनों दायरों का अंतर तेजी से मिट रहा है। गणित का संकट हमारे लिए यह है कि, इस क्षेत्र में भारतीय मेधा के पिछड़ने के पूरे-पूरे आसार हैं। इससे संबंधित एक तथ्य तीन साल पहले (2012 में) अंतरराष्ट्रीय टेस्ट पीसा यानी ‘प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट’ में भारतीय किशोरों की रैकिंग से स्पष्ट हुआ था।

टेस्ट के नतीजों के आधार पर 73 देशों की जो सूची बनाई गई थी, भारतीय बच्चे उसमें 71वें स्थान पर आए थे। भारतीय किशोर सूची में शीर्ष पर रहे चीनी बच्चों के मुकाबले 200 अंक पीछे थे। पीसा टेस्ट का आयोजन आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन नामक संस्था कराती है और दो घंटे के इस टेस्ट में दुनिया भर के तकरीबन पांच लाख बच्चे हिस्सा लेते हैं। इससे पहले साल 2011 में ऑस्ट्रेलियन काउंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च द्वारा किशोरों में गणित और विज्ञान की जागरूकता के आंकलन के बारे में कराई गई वैश्विक परीक्षा में भी भारतीय बच्चों का प्रदर्शन इतना ही निराशाजनक रहा था। उसमें भी 73 देशों के बच्चों ने हिस्सा लिया था और भारत सिर्फ किर्गिस्तान से ऊपर 72वें स्थान पर रहा था। हमने तब भी समस्या को थामने की ओर ध्यान नहीं दिया था।

गणित में बच्चों और बड़ों की अरुचि होना व उसे नीरस विषय मानना कोई अनहोनी नहीं है। शायद ऐसी अरुचि ही वजह थी कि जब अल्फ्रेड नोबेल मानवता को फायदा पहुंचाने वाले क्रांतिकारी आविष्कारों और खोजों को सम्मानित करने के लिए नोबेल पुरस्कारों का गठन कर रहे थे, तब उनके दिमाग में गणित जैसा विषय कोई हलचल पैदा नहीं कर पाया था। पर यह जानते हुए कि गणित की भूमिका हमारे आज के रोजमर्रा के कामकाज में लगातार बढ़ रही है, बच्चों में इसके प्रति दिलचस्पी कम होना एक खतरनाक संकेत है। ऐसे में प्रोफेसर मंजुल भार्गव की उपलब्धि हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है, लेकिन क्या उनका यह पुरस्कार भारतीय बच्चों-युवाओं में गणित के प्रति कोई रुचि जगा पाएगा! भले ही गणित को एक शुष्क विषय माना जाता हो, लेकिन आज के हालात में दुनिया गणित के कायदों पर घूम रही है। इस वक्त पूरी दुनिया में गणित की बढ़ती महत्ता इससे साबित होती है कि अमेरिका में पिछले अरसे में गणितज्ञों की मांग में तेजी से इजाफा हुआ है। गणित के विशेषज्ञ वहां की सरकारी, निजी कंपनियों, सरकारी एजेंसियों और एनजीओ से लेकर शैक्षणिक संस्थाओं में ऊंचे वेतनमान पर नियुक्त किए जा रहे हैं।

भारत में गणित अध्ययन की परंपरा पुरानी है। आर्यभट्ट व ब्रह्मगुप्त को कौन नहीं जानता है। दुनिया को शून्य का ज्ञान सबसे पहले भारत ने ही कराया था। 14वीं सदी में गणितज्ञ माधव ने न्यूटन और लाइबनिज से पहले ही कैलकुलस के सिद्धांत खोज लिए थे। बीसवीं सदी के प्रारंभ में श्रीनिवास रामानुजन ने गणितीय अनुसंधानों से गणित की दुनिया को रोमांचित कर दिया। आज यदि देश के स्कूल गणित की पढ़ाई में फिसड्डी साबित हो रहे हैं, तो इसकी चिंता सभी पक्षों को मिलकर करनी होगी।

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