फिर लौट रहा है 'मलेरिया'

हर साल दुनिया भर में मलेरिया के लगभग 22 करोड़ मामले सामने आते हैं। कंपकंपी, ठंड लगना और तेज बुखार मलेरिया के लक्षण हैं। अगर मलेरिया का सही इलाज न हो तो समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है।
फिर लौट रहा है 'मलेरिया'
फिर लौट रहा है 'मलेरिया'Social Media

"मलेरिया फैलाने वाला एनाफिलीज टंकियों, गड्ढों में जमा पानी में प्रजनन करता है। इसलिए साफ-सफाई व मच्छरों का खात्मा करके ही इन रोगों से बचा जा सकता है। लेकिन नगर पालिकाओं को साफ-सफाई और कीटनाशकों के छिड़काव का जो जरूरी काम करना चाहिए, वह भी वे समय से नहीं करती हैं। सरकार चेतती ही तब है जब रोग महामारी बन जाता है।"

राज एक्सप्रेस। हर साल दुनिया भर में मलेरिया के लगभग 22 करोड़ मामले सामने आते हैं। कंपकंपी, ठंड लगना और तेज बुखार मलेरिया के लक्षण हैं। अगर मलेरिया का सही इलाज न हो तो समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है। चिंता की बात यह है कि मलेरिया से लड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाली जरूरी दवाएं बेअसर हो रही हैं। मलेरिया के परजीवी इन दवाओं को लेकर प्रतिरोधक हो गए हैं। अब इन दवाओं का भी उन पर असर नहीं हो रहा। कंबोडिया से लेकर लाओस, थाईलैंड व वियतनाम में अधिकतर मरीजों पर मलेरिया में दी जाने वाली प्राथमिक दवाएं असर नहीं कर रही हैं। खासकर कंबोडिया में इन दवाओं के बेअसर होने के सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं।

अगर दक्षिण एशियाई देश भारत की बात करें तो 2017 में आई ‘वर्ल्ड मलेरिया’ रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मलेरिया के मामलों में 24 फीसद तक कमी आई है। दुनिया में मलेरिया मरीजों के 70 फीसद मामले 11 देशों में पाए जाते हैं जिनमें भारत भी शामिल है। पिछले साल भारत में मलेरिया के मामलों में 24 फीसद की कमी आई और इसके साथ ही भारत मलेरिया की मार वाले शीर्ष तीन देशों में शुमार नहीं है। हालांकि अब भी भारत की कुल आबादी के 94 फीसद लोगों पर मलेरिया का खतरा बना हुआ है। आजकल मच्छरों की ऐसी प्रजातियां पैदा हो गई हैं जिन पर जहरीले रसायनों का भी जल्दी असर नहीं होता है। इसलिए मच्छरों के काटने से बीमारियों के प्रकोप से भारत की बहुत बड़ी आबादी त्रस्त है।

मलेरिया, डेंगू, मस्तिष्क ज्वर, चिकनगुनिया और फाइलेरिया जैसी बीमारियां मच्छरों के काटने से ही होती हैं। हर साल लाखों लोग मलेरिया की चपेट में आते हैं और हजारों डेंगू से दम तोड़ देते हैं। कुछ राज्यों में मस्तिष्क ज्वर से भी बड़ी संया में लोग मारे जाते हैं। डेंगू और चिकनगुनिया एडिस मच्छरों के काटने से फैलते हैं। यह मच्छर काले और सफेद रंग का होता है और कूलर, बर्तन या टंकी में जमा साफ ठहरे हुए पानी में पनपता है। मस्तिष्क ज्वर फैलाने वाला युलेस विश्नुई मच्छर धान के खेतों में ही पनपता है। धान के खेतों में बच्चों को जाने से रोक कर इस बीमारी का काफी हद तक बचाव किया जा सकता है। मलेरिया फैलाने वाला एनाफिलीज भी टंकियों, गड्ढों में जमे पानी में प्रजनन करता है। इसलिए साफ- सफाई में ही रोगों से बचा जा सकता है।

दरअसल, पालिकाओं को साफ-सफाई और कीटनाशकों के छिड़काव का जो जरूरी काम करना चाहिए, वह भी वे समय से नहीं करती हैं। सरकार चेतती ही तब है जब रोग महामारी बन जाता है। बड़ी समस्या यह भी है कि इन जानलेवा बीमारियों से निपटने के लिए पश्चिम के बड़े विकसित देश तैयार इसलिए नहीं हैं क्योंकि ये बीमारियां वहां नहीं होती हैं। इसलिए इन पर नियंत्रण या किसी औषधि के अनुसंधान और विकास का कोई विशेष कार्य वहां नहीं हुआ। लेकिन अमेरिका सैनिकों की रक्षा के लिए मलेरिया पर अनुसंधान कर रहा है। उसके नौसेना अनुसंधान संस्थान ने नई डीएनए टीका प्रौद्योगिकी विकसित की है।

वर्ष 1998 में सफल परीक्षणों के बाद हाफ मैन ने कहा-हमने मलेरिया की बीमारी को उदाहरण के रूप में रख कर नई प्रौद्योगिकी का परीक्षण किया योंकि यह बीमारी हमारे जवानों के लिए सबसे खतरनाक संक्रामक रोग है। मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल की जा रही दवा लोरोविन का विकास भारत और वाल्टर रीड सेवा शोध संस्थान के साझा प्रयासों से ही हुआ है। मगर दशकों के प्रयास के बावजूद वैज्ञानिक ऐसा टीका ईजाद नहीं कर पाए हैं जो प्रभावी हो। पहले कुछ इलाकों में मलेरिया से बचाव के लिए लोगों को कुनैन की गोलियां खिला कर रोकथाम की गई, पर इसमें भी पूरी सफलता नहीं मिली। इस दवा का असर थोड़े समय ही रहता था और एक बार बीमारी फैलने के बाद उसको महामारी का रूप धारण करने से रोकना संभव नहीं हो पाया। कई और औषधियां प्राइमाविन व पाइरोमेथामिन प्रमुख हैं।

1938 में कीड़ों-मकोड़ों को मारने के लिए डीडीटी की खोज की गई थी। इसकी खोज से मलेरिया को रोकने का नया हथियार मिल गया। पर भारत और अफ्रीका जैसे उष्ण कटिबंधीय देशों में बड़े पैमाने पर यह अभियान चलाना भी संभव नहीं हो सका, योंकि इसके लिए कुशल प्रशासन, आवश्यक धन और साधन नहीं जुटाया जा सका। लेकिन इसी दौरान यह भी पता चला कि मच्छरों पर डीडीटी बेअसर साबित हो रही है। इसका बड़ा कारण यह बताया गया कि एनाफिलिज मच्छर की अनेक प्रजातियां डीडीटी के अलावा दूसरे कीटनाशकों की प्रतिरोधी हो गई हैं। उधर, मलेरिया परजीवियों पर प्रोग्वानिल और पाइरोमेथागिन जैसी प्रचलित औषधियों का असर नहीं हो रहा था। इसके अलावा मलेरिया परजीवियों की कुछ नई जातियां भी पैदा हो गई थीं जिन पर लोरोविन का असर नहीं हुआ जबकि लोरोविन को अब तक की सबसे प्रभावशाली औषधि माना जाता था।

इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक मलेरिया के मामले में कमी का लक्ष्य ओडिशा को इस बीमारी से लड़ने में मिली कामयाबी के कारण मुमकिन हो सका है। इससे पहले भारत में मलेरिया मरीजों का 40 फीसद हिस्सा ओडिशा से आता था। कंबोडिया में मलेरिया के लिए दो दवाओं का इस्तेमाल होता है- आर्टेमिसिनिन और पिपोराविन। ये दवाएं साल 2008 में कंबोडिया लाई गई थीं। लेकिन 2013 में कंबोडिया के पश्चिमी हिस्से में पहला ऐसा मामला सामने आया जब मलेरिया के परजीवी पर इन दोनों दवाओं का असर खत्म होने लगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण-पूर्वी एशिया के मरीजों के खून के नमूने लिए गए। जब इन परजीवियों के डीएनए की जांच की गई तो पाया गया कि परजीवी दवा प्रतिरोधी हो चुके हैं और यह प्रभाव कंबोडिया से होकर लाओस, थाईलैंड और वियतनाम तक फैल चुका है।

इन देशों के कई क्षेत्रों में 80 फीसद तक मलेरिया परजीवियों पर दवा बेअसर है। वियतनाम में ऑसफोर्ड यूनिवर्सिटी की लिनिकल रिसर्च यूनिट के प्रो. ट्रान तिन्ह हिएन के अनुसार, मलेरिया के परजीवियों में प्रतिरोध के प्रसार और गहराते संकट ने वैकल्पिक उपचारों को अपनाने की जरूरत पर प्रकाश डाला। मलेरिया में आर्टेमिसियम के साथ दूसरी दवाओं के इस्तेमाल और तीन दवाओं के योग से इसका इलाज संभव है। दुनिया को मलेरिया से मुत करने की दिशा में हो रहे तमाम प्रयासों को झटका लगा है। सबसे बड़ा संकट है कि अगर यह अफ्रीका में पहुंच गया तो या होगा, जहां मलेरिया के मामले सबसे ज्यादा हैं। अगर यह अफ्रीका पहुंच गया तो नतीजे भयानक होंगे क्योंकि मलेरिया अफ्रीका की बड़ी समस्या है। लंदन स्कूल ऑफ हाइजिन और ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर कॉलिन सदरलैंड मानते हैं कि परजीवियों का दवा प्रतिरोधी होना एक बड़ी समस्या तो है लेकिन इसे वैश्विक संकट नहीं कहा जा सकता। इसके परिणाम इतने भयानक नहीं होंगे जैसा हम सोच रहे हैं।

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