युवा पर भारी पड़ रहा अवसाद

परिवार को अहमियत देने वाले भारतीय समाज में अकेले पड़ते युवाओं का यह संकट असल में हमारी सामाजिक व्यवस्था के खोखलेपन को जाहिर कर रहा है।
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युवा पर भारी पड़ रहा अवसादSocial Media

राज एक्सप्रेस। ऐसा लग रहा है कि समाज में परस्पर वास्तविक संवाद के अवसर कम हो रहे हैं जिसमें लोग अपने मन की बात दूसरों से साझा करते थे और जिससे उनका तनाव कम होता था और उन्हें संबल मिलता था।

मोटापा, टीबी, कैंसर और डायबिटीज जैसी बीमारियों को पीछे छोड़ते हुए अवसाद देश में नई महामारी के रूप में पैर पसार रहा है। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति खुद और अपने परिवार के लिए समस्या बनता है। मगर ज्यादा खतरा तब पैदा होता है जब अवसाद ग्रस्त व्यक्ति अपने दायरों से बाहर जाकर बाहरी समाज में ऐसे कृत्य करने लगता है जिसके घाव कई परिवार झेलते हैं। पिछले दिनों देश में ऐसी कई घटनाएं सामने आईं, जब एक शख्स ने अपने पूरे परिवार को खत्म कर खुद भी जान दे दी। इस तरह की घटनाओं से तो यही साबित हो रहा है कि समाज का बड़ा हिस्सा अवसाद जैसी गंभीर बीमारी की जद में न आ जाए।

आंकड़ों में देखें तो आज देश के हर बीस व्यक्तियों में से एक अवसाद का शिकार बन गया है। बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज ने कुछ समय पहले वर्ष 2015 में कराए गए एक सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में अवसाद के तीन करोड़ 35 लाख नए मरीजों ने देश के अलग- अलग अस्पतालों में पंजीकरण कराया था। 2014 के आंकड़ों की तुलना में संख्या में 11 लाख यानी 14 फीसद नए मरीजों का इजाफा हुआ। सर्वेक्षण में यह भी कहा गया कि अवसाद के मरीजों की संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। अवसाद को लेकर गंभीरता का यह एक पहलू है जिससे साबित होता है कि अब बहुत से लोग इसे छिपाने की बजाय उसके इलाज की कोशिश करने लगे हैं। यह भी बड़ा सच है कि खासतौर से शहरों में मनोचिकित्सकों की संख्या बढ़ी है। लेकिन दो बड़ी समस्याएं हैं। पहली तो यह कि अवसाद के इलाज की जिमेदारी ज्यादातर मामलों में व्यक्तिगत मानी जाती है। यानी जो इसका शिकार है, अगर समझ पाए तो उसके इलाज की व्यवस्था करे।

दूसरी समस्या यह कि अवसाद से निपटने की कोई खास योजना सरकार के पास नहीं है। देश भर में मनोचिकित्सा के सरकारी केंद्रों की बात करें तो उनकी संख्या अभी 50 को भी पार नहीं कर पाई है। इसमें पंजाब, नगालैंड, दिल्ली व गोवा जैसे राज्यों में महज एक-एक सरकारी चिकित्सा केंद्र है। यही नहीं, मानसिक बीमारियों के इलाज के सरकारी और निजी अस्पतालों की संख्या भी पूरे देश में एक हजार भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि अवसाद सिर्फ भारत की समस्या है। दुनिया के कई मुल्क इससे जूझ रहे हैं। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे विकसित देश भी अवसाद को बड़ी समस्या मानते हैं और इसके लिए वहां बाकायदा जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जाते हैं और इलाज की पुख्ता व्यवस्था सरकारी स्तर पर भी की जाती है। अगर संख्या की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में 35 करोड़ लोग अवसादग्रस्त हैं।

अवसाद के कारणों को समझना और उसके इलाज की व्यवस्था करना अब जरूरी हो गया है। अवसाद के प्रमुख कारण बेरोजगारी या नौकरी की कुंठा और परिवार में सदस्यों का सामंजस्य नहीं बैठ पाना है। दो साल पहले की घटना है जब नौकरी से असंतुष्ट रहने वाले एक शख्स ने अपने कुछ साथियों की हत्या कर दी थी। पांच साल पहले वर्ष 2014 में तेलंगाना में अवसाद से पीड़ित युवक ने तलवार से 22 लोगों को घायल कर दिया था और उस पर काबू पाने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी थी, जिसमें वह मारा गया था। ऊपरी तौर पर वह युवक नौकरी से संतुष्ट कहा जा सकता था, क्योंकि सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर वह डेढ़ लाख रुपए वेतन पा रहा था। लेकिन नौकरी के दबावों के चलते वह सिविल सेवा परीक्षा में सफल नहीं पा रहा था और इस वजह से वह अवसादग्रस्त हो गया था। बेरोजगारी और नौकरी की ऊंच-नीच कितनी घातक साबित हो रही है, इस बारे में एक तथ्य 2014 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री ने संसद में रखा था। उन्होंने बताया था कि वर्ष 2014 में रोजगार संबंधी समस्याओं के चलते रोजाना करीब तीन लोगों ने आत्महत्या की। 2014 में व्यवसाय और रोजगार से जुड़ी समस्याओं के कारण घोर निराशा में घिरे नौ सौ तीन लोगों ने आत्महत्या की थी। अवैध संबंधों के संदेह में या फिर समाज में बदनामी के कारण और प्रेम प्रसंगों में मिली नाकामी की वजह से भी हर साल कई हजार युवा मौत को गले लगा रहे हैं। पर रोजगाररत लोग भी आत्महत्या कर लें या अवसाद में दूसरों की जान लेने की हद तक चले जाएं, तो यह चिंता की बात है।

अवसाद में घातक कदम उठाने की प्रवृति महिलाओं के मुकाबले पुरुष में ज्यादा है और इनमें भी युवाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा है। इससे जुड़ी विडंबना यह है कि आत्महत्या का प्रतिशत देश के विकसित कहे जाने वाले राज्यों में ज्यादा है, जैसे- पंजाब व हरियाणा में तो आत्महत्याओं का प्रतिशत देश के औसत से कहीं ज्यादा है। जीवन के ऊंचे लक्ष्यों को पाने की होड़ के कारण भी युवाओं में हताशा का भाव और अवसाद पैदा हो रहा है। हालांकि समाजशास्त्री इसके पीछे कुछ और कारणों को जिम्मेदार मानते हैं। उनके मत में युवाओं की हताशा का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और कठोर यथार्थ में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं। आधुनिक जीवनशैली और नई संस्कृति की चमक-दमक उन्हें लुभाती है, लेकिन उसके लिए संसाधन जुटा पाने का मौका उन्हें हमारी व्यवस्था में सहज ढंग से नहीं मिल पाता है।

जस तरह से हर तीन आत्महत्याओं में एक 15 से 29 वर्ष के युवा कर रहे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देश के युवा समाज के लिए यह खतरनाक है। यह समाज के लिए खतरे की घंटी है। यह तो तय है कि बाहरी समाज यह पता नहीं कर सकता कि हर व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है। लेकिन जो परिवार और समाज ऐसे मानसिक रोगियों के करीब होता है, उसे बेरोजगारी और पारिवारिक तनावों के चलते कुंठाग्रस्त और हताश लोगों की जानकारी पहले से हो जाती है। उन्हें यह आशंका भी सताने लगती है कि ऐसे लक्षण दिखा रहा व्यक्ति कहीं किसी दिन ऐसा हंगामा खड़ा नहीं कर दे, जिससे पूरे समाज को दिक्कत हो जाए। लेकिन इसके बावजूद ऐसी कोई गंभीर कोशिश नहीं होती जिससे ऐसी घटनाएं वक्त रहते रोकी जा सकें। यही वजह है कि ऐसी घटनाएं बार-बार होती रहती हैं। पारंपरिक रूप से परिवार को अहमियत देने वाले भारतीय समाज में अकेले पड़ते युवाओं का यह संकट असल में हमारी सामाजिक व्यवस्था के खोखलेपन को जाहिर कर रहा है।

ऐसा लग रहा है कि समाज में अब परस्पर वास्तविक संवाद के अवसर कम हो रहे हैं जिसमें लोग अपने मन की बातों को दूसरों से साझा करते थे और जिससे उनका तनाव कम होता था और सामाजिक रूप से उन्हें संबल मिलता था। नौकरी या प्रेम में असफलता जैसी चीजें पहले भी रही हैं पर पहले युवा इतनी जल्दी जिंदगी से उकता नहीं जाते थे। इसलिए यह देखना और समझना होगा कि देश के एक हिस्से में बढ़ती संपन्नता भी अब युवाओं के अकेलेपन, दुख और तनाव को कम क्यों नहीं कर पा रही है। इस समस्या से निजात पाने समाज या पहले परिवार पहल कर सकता है।

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