कानून या फैसले पर असहमति या फिर विरोध हर नागरिक का लोकतांत्रिक अधिकार

किसी कानून या फैसले पर असहमति हर नागरिक का लोकतांत्रिक अधिकार है। उससे निपटने का तरीका यह नहीं हो सकता कि दमन का रास्ता अख्तियार किया जाए। किसानों को भी आंदोलन का तरीका वापस लेना चाहिए।
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कृषि कानूनों के विरोध में एक बार फिर बड़ी तादाद में किसान सडक़ों पर उतर आए हैं और वे दिल्ली की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। इसमें देश भर के किसान संगठन हिस्सा ले रहे हैं। इसके पहले भी किसान दिल्ली पहुंचे थे और राजपथ पर उग्र प्रदर्शन किया था। पंजाब से किसान इसलिए दिल्ली की तरफ कूच करने में सफल हो पा रहे हैं कि वहां कांग्रेस की सरकार है और वह खुद केंद्र के इन कानूनों का विरोध कर रही है। जिन प्रांतों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां किसानों को सख्ती से रोकने का प्रयास किया जा रहा है। हरियाणा में भी किसान इन कानूनों के खिलाफ लामबंद हैं, पर वहां उन पर सख्ती से अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है। पिछले दो दिनों से जिस तरह अराजकता का माहौल है, उसे सही तो नहीं ठहराया जा सकता। वह भी तक जब केंद्र और भाजपा शासित राज्य सरकारें बार-बार दलील दे रही हैं कि कृषि कानून किसानों के हित में हैं, पर इससे किसान संतुष्ट नहीं हो पा रहे, तो जाहिर है कि कहीं न कहीं कोई कमी या भ्रम जरूर बना हुआ है।

अब सरकार ने फिर कह दिया है कि किसान नेता तीन दिसंबर को दिल्ली आएं, बैठकर बात होगी और सभी शंकाओं का समाधान भी किया जाएगा, तो क्या किसानों को दिल्ली मार्च की जिद से पीछे नहीं हट जाना चाहिए। आखिर दिल्ली तक पहुंच कर कौन सा कानून रद्द करा लेंगे या सरकार पीछे हट जाएगी। सरकार कह चुकी है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त नहीं करेगी, पर किसानों को इस पर भरोसा नहीं हो पा रहा। यह ठीक है कि किसान मंडियां पूरे देश में प्रभावी नहीं हैं और न पूरे देश में बड़ी जोत के किसान हैं, जिन्हें किसान मंडियों के खत्म होने से नुकसान उठाना पड़ सकता है। मगर नए कानूनों से कंपनियों को लाभ मिलने की आशंका पैदा हो गई है, तो इसके समाधान के लिए प्रयास होने ही चाहिए। पहले ही कृषि उत्पादों पर निजी कंपनियों की दखल बढ़ऩे से महंगाई पर काबू पाना कठिन बना है, इसे लेकर सरकारों की भी चिंता होनी चाहिए।

किसी कानून या फैसले पर असहमति या फिर विरोध हर नागरिक का लोकतांत्रिक अधिकार है। उससे निपटने का तरीका यह नहीं हो सकता कि दमन का रास्ता अख्तियार किया जाए। किसान नेताओं के साथ मिल-बैठ कर उनकी बातें सुनी जाएं और कानूनों में रह गई कमियों को दूर किया जाए। अगर किसानों को किन्हीं बिंदुओं पर भ्रम बना हुआ है, तो उसे दूर करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। जब से यह कानून बना है, तभी से इसका लगातार विरोध हो रहा है। मगर यह समझना मुश्किल है कि सरकार इसे लेकर फैले भ्रमों को तार्किक ढंग से दूर करने के बजाय बल प्रयोग का सहारा क्यों ले रही है। सरकारों पर लोगों का भरोसा तभी बना रहता है, जब उनके फैसलों में पारदर्शिता होती है। ऐसा न हो तो उन पर विपक्षी दलों को अपनी राजनीतिक गोटियां बिठाने का मौका मिलता है और आम लोगों में असंतोष गाढ़ा होता है।

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