कार्बन उत्सर्जन से गरमाती धरती

ब्रिटेन में मौसम विभाग के कार्यालय और एक्सेटर विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के कारण 2019 को साल 2018 के मुताबिक गर्म साल बताया जा रहा है।
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राज एक्सप्रेस, भोपाल। ब्रिटेन में मौसम विभाग के कार्यालय और एक्सेटर विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि, इस साल कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में और भी अधिक तेजी आ सकती है। अभी हाल ही में खबर आई थी कि, साल 2018 सबसे गर्म साल था। अब 2019 को उससे भी गर्म साल बताया जा रहा है, तो यह आने वाले कल के लिए चेतावनी है। बेहतर है कि, हम बहस में पड़ने के बजाय राहत के उपाय तलाशें।

बढ़ते प्रदूषण के बीच बढ़ रही वैश्विक चिंता के बीच यह खुलासा और भी परेशान करने वाला है कि, इस साल कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में और भी अधिक तेजी आ सकती है। गौरतलब है कि, यह खुलासा ब्रिटेन में मौसम विभाग के कार्यालय और एक्सेटर विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने किया है। उन्होंने शोध में पाया है कि, हवाई स्थित मौना लोआ वेधशाला में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता में 1958 से करीब 30 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। इसका मुख्य कारण जीवाश्म ईंधनों, वनों की कटाई व सीमेंट उत्पादन है। मौसम विज्ञान कार्यालय ने आशंका जाहिर की है कि, इस साल कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन वर्ष 2018 की तुलना में 2.75 भाग प्रति दस लाख अधिक होगा। शोधकर्ताओं की मानें तो, वर्ष 2019 में औसत कार्बन डाईऑक्साइड सघनता 411.3 पीपीएम रहने की संभावना है। अगर ऐसा हुआ तो 2019 सबसे गर्म साल रहेगा।

उल्लेखनीय है कि, वर्ष 2018 में धरती का वैश्विक सतह तापमान 1880 के बाद से अब तक का चौथा सबसे गर्म तापमान रहा। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टडीज के मुताबिक, वर्ष 2018 में वैश्विक तापमान 1951 से 1980 के औसत तापमान से 0.83 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था। गौर करें तो इस स्थिति के लिए काफी हद तक कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन ही जिम्मेदार है। एक आंकड़ें के मुताबिक, अब तक वायुमंडल में 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और 24 लाख टन ऑक्सीजन समाप्त हो चुकी है। अगर यही स्थिति रही तो, 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तय है। वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यत: ग्लोबल वार्मिग है और इससे निपटने की त्वरित कोशिश नहीं हुई तो आने वाले वर्षो में धरती का खौलते कुंड में परिवर्तित होना तय है। अमेरिकी वैज्ञानिकों की मानें तो वैश्विक औसत तापमान पिछले सवा सौ सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है। औद्योगिकरण की शुरुआत से लेकर अब तक तापमान में 1.25 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है।

आंकड़ों के मुताबिक, 45 वर्षो से हर दशक में तापमान में 0.18 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। आइपीसीसी के आकलन के मुताबिक 21 सवीं सदी में पृथ्वी के सतह के औसत तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने की आशंका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वायु में मौजूद ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड के अनुपात पर शोध में पाया है कि, बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से कम हो रही है। पिछले आठ सालों में वातारवरण से ऑक्सीजन काफी रफ्तार से घटी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि, पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया, तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अंटाकर्टिका के विशाल हिमखंड पिघल जाएंगे। देखा भी जा रहा है कि, बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ चिंताजनक रूप से पिघल रही है। अगर बर्फ का पिघलना थमा नहीं तो आने वाले वर्षो में न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, पेरिस, लंदन, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम कोचीन और त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में होंगे।

वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक, बढ़ते तापमान के कारण दुनिया के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से कम रह गई है। हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर दो से पांच किलोमीटर सिकुड़ गए हैं। 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है। अनुमानित भूमंडलीय तापन से जीवों का भौगोलिक वितरण तक भी प्रभावित हो सकता है। कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। जातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं आदि पर गहरा असर पड़ेगा। यहां ध्यान रखना होगा कि, पृथ्वी पर लगभग 12 करोड़ वर्षो तक राज करने वाले डायनासोर नामक दैत्याकार जीवों के समाप्त होने का कारण भूमंडलीय तापन ही था। बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए भारत एवं वैश्विक समुदाय को कमर कसना होगा। पर्यावरणविदों की मानें तो, बढ़ते तापमान के लिए मुख्यत: ग्रीन हाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईंधन का दहन है। तापमान में कमी तभी आएगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी।

आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2000 से 2010 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन की दर प्रतिवर्ष तीन फीसद रही, जबकि भारत के कार्बन उत्सर्जन में यह वृद्धि पांच फीसद रही। यानी 2014 की तुलना में 2015 में भारत ने पांच फीसद से ज्यादा कार्बन उत्सर्जित किया। कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक रूप से कोयला ही जिम्मेदार है। हालांकि ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की रिपोर्ट पर गौर करें तो अमेरिका और चीन ने कोयले पर अपनी निर्भरता काफी कम कर दी है। इसके स्थान पर वह तेल और गैस का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत की बात करें, तो उसकी कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयले पर निर्भर है। अच्छी बात यह है कि, भारत ने गत वर्ष पहले ही पेरिस जलवायु समझौते को अंगीकार करने के बाद क्योटो प्रोटाकाल के दूसरे लक्ष्य को अंगीकार करने की मंजूरी दे दी है। इसके तहत देशों को 1990 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 18 फीसद तक घटाना होगा। भारत के इस कदम से अन्य देश भी इसे अंगीकार करने के लिए आगे आएंगे। उल्लेखनीय है कि, उद्योगों से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए 11 दिसंबर, 1997 को जापान के क्योटो शहर में संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में 192 देशों के बीच यह संधि हुई। 16 फरवरी-2005 को यह प्रभावी हुई। विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को लक्ष्य पूरा करने आर्थिक और तकनीकी मदद उपलब्ध कराना भी इसका हिस्सा है।

गौरतलब है कि, संधि का पहला लक्ष्य 2008-12 के लिए तय हुआ था। इसमें औद्योगिक अर्थव्यवस्था वाले 52 देशों ने चार ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर हेक्साफ्लोराइड) का उत्सर्जन 1990 की तुलना में 5 फीसद तक घटाने का लक्ष्य रखा था। अन्य देशों ने भी इसके लिए अपने-अपने लक्ष्य रखे थे। गौर करें तो पेरिस जलवायु समझौते पर भी भारत ने दुनिया को राह दिखाई है। 2020 से कार्बन उत्सर्जन को घटाने संबंधित प्रयास शरू करने के लिए दिसंबर-2015 को यह संधि हुई। इस संधि पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए। 126 देश इसे अंगीकार कर चुके हैं। भारत ने दो अक्टूबर-2016 को इसे अंगीकार करके अन्य देशों को भी अंगीकार करने की राह दिखाई। फिर कुछ अन्य देशों द्वारा इसे अंगीकार किए जाने पर 4 नवंबर-2016 को यह प्रभावी हुआ। इसके तहत बढ़ते वैश्विक औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस पर ही रोकने का लक्ष्य तय है। पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिए कंक्रीट के जंगल का विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहन पर लगाम कसनी होगी। कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करने होंगे।

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