मजदूरों की पीड़ा की वीभत्स तस्वीर

औरंगाबाद में पटरी पर सोए प्रवासी मजदूरों के पर से मालगाड़ी गुजरने से 16 की मौत हो गई। मरने वालों में मजदूरों के बच्चे भी शामिल हैं। सभी मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं।
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मजदूरों की पीड़ा की वीभत्स तस्वीरSocial Media

राज एक्सप्रेस। यह त्रासदी भरी घटना ढेरों सवाल उठा रही है, भविष्य पर सवालिया निशान भी लगा रही है। लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की बेबसी की एक और घटना सामने आई है। यह महज घटनाभर नहीं है, लाचारी भी है। इसे नियति कहना भी गलत होगा, क्योंकि ऐसी परिस्थिति हमने निर्मित की। कोरोना का संक्रमण तो सिर्फ सोशल डिस्टेंसिंग का संदेश दे रहा था, मगर हमने तो मजदूरों को सड़क पर ला खड़ा कर दिया। तभी तो औरंगाबाद जैसा हादसा आज हमारे सामने है और हम बेबस हैं, जो 16 जिंदगियों को वापस नहीं ला सकते। औरंगाबाद में पटरी पर सोए प्रवासी मजदूरों के ऊपर से मालगाड़ी गुजरने से 16 की मौत हो गई है। मरने वालों में मजदूरों के बच्चे भी शामिल है। मरने वाले सभी मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। घटना शुक्रवार तड़के करमाड पुलिस स्टेशन थाने की है। खाली मालगाड़ी मजदूरों के ऊपर से गुजर गई। प्रवासी मजदूर रेल की पटरियों पर सोये और अचानक उनके ऊपर मालगाड़ी गुजर गई। नींद में होने की वजह से किसी को भी संभलने का मौका नहीं मिला। लेकिन हम चाहते तो घटना को रोक सकते थे, मजदूरों को असमय मारे जाने से बचा सकते थे। जान और जहान के चक्कर में अब हाथ में कुछ नहीं बचा है।

अब भी समय है, हम जहान के चक्कर में जान बचा लें। यह देश मजदूरों का है, उन्हीं से आगे बढ़ता है। मजदूर किसी भी देश की धुरी होते हैं, मगर आज वही जाम हो चुकी है। भविष्य का पहिया घूमे भी तो कैसे। आज जिन 16 परिवार में कोहराम मचा है, उसे सुनने की भी हिम्मत किसी में नहीं है क्योंकि यह कोहराम कोरोना ने नहीं व्यवस्था ने दिया है। देश के विभिन्न हिस्सों से प्रवासी मजदूरों के अपने घरों की ओर लौटने की बेकली सड़कों पर नजर आ रही है। सूरत, बेंगलुरु, दिल्ली, मुंबई, हर कहीं लोग घर की ओर लौटते दिख रहे हैं। अभी कोरोना संक्रमितों की संख्या घटने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे में सरकारों की चिंता है कि अगर लोगों को घर लौटने की खुली छूट दे दी गई, तो संक्रमण का चक्र तोड़ने की मंशा धरी रह जाएगी। इसलिए लॉकडाउन के तीसरे चरण में शर्तों के साथ छूटें दी गई हैं। पर लोगों का सब्र टूटने लगा है।

पिछले 40 दिनों से ज्यादा समय तक तक घरों, शिविरों, आश्रय केंद्रों में जैसे भी बंद रह कर उन्होंने नियमों का पालन किया, पर अब जब कुछ राज्य सरकारों ने जगह-जगह फंसे विद्यार्थियों, मजदूरों वगैरह को निकालने की पहल की है, तब लोगों की घर लौटने की बेचैनी बढ़ गई है। दरअसल, ये लोग जितने बीमारी के भय से आतंकित नहीं हैं, उनसे अधिक भूख और बदहाली से त्रस्त हैं। आगे भी जीवन की स्थितियां कुछ आशाजनक नहीं दिख रहीं। इसलिए वे जितना जल्दी हो, अपने गांव, परिवार के बीच पहुंच जाना चाहते हैं। बहुत सारे लोग मदद के लिए दान कर रहे हैं, उसका कुछ हिस्सा इस पर खर्च किया जा सकता है। आखिर इस तरह लंबे समय तक लोगों को जबरन रोक कर और त्रासद स्थितियों के बीच जीने को बाध्य करना कहां तक उचित कहा जा सकता है।

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