लॉकडाउन और जरूरत का पैमाना

लॉकडाउन के पहले दो चरणों की समीक्षा व आमजन की जरूरतों को देखते हुए तीसरे चरण में कुछ रियायतें देने की आवश्यकता अनुभव हुई, तो...
लॉकडाउन और जरूरत का पैमाना
लॉकडाउन और जरूरत का पैमानाSocial Media

राज एक्सप्रेस। सरकारों को खाने-पीने की और आवश्यक वस्तुओं के साथ शराब, तंबाकू और गुटखा जैसे पदार्थों की उपलब्धता की फिक्र भी सताने लगी। बिहार जैसे कई राज्यों की सरकारों ने इनको मानव जीवन के लिए न सिर्फ अनावश्यक, बल्कि हानिकारक मानते हुए कई तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं। लेकिन 40 दिनों बाद लॉकडाउन के तीसरे चरण में इन्हें जनसामान्य को उपलब्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गई और शराब के ठेकों सहित इनकी दुकानें खोल कर संचालित करने की ऐसी व्यवस्थाएं की गई, ताकि दो व्यक्तियों के बीच सुरक्षित दूरी का नियम और उसका पालन होता रहे। बिहार और महाराष्ट्र को छोड़ कर पूरे देश में इनके सुबह दस से शाम सात बजे तक संचालित रहने की अनुमति दी गई। इससे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यही निकलता है कि संभवत: ये मानवीय जीवन की आवश्यकताओं में शामिल हैं, जिसके चलते इनकी सुलभता को राष्ट्रीय आवश्यकताओं के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।

इन ठेकों और दुकानों के खुलने से पहले ही उनके सामने लग गए खरीदारों के रेले से भी यही लगता है कि इनके बारे में लॉकडाउन लागू करते वक्त किया गया मूल्यांकन वास्तविक्ताओं पर आधारित नहीं था। देश के संविधान में शराब जैसी नशीली वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाने की भी चर्चा है। तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने सबसे पहले इस दिशा में कदम उठाए थे, लेकिन कुछ लोग इसे पीने को अपनी अनिवार्य आवश्यकता बता कर मामले को सर्वोच्च न्यायालय ले गए। वहां से निर्देश जारी हुआ कि उनकी अनिवार्यता को ध्यान में रख कर इसकी उपलब्धता के लिए परमिट प्रणाली शुरू की जाए, ताकि सरकारी एजेंसियों और डॉक्टरों की रिपोर्ट के अनुसार, जिनके लिए इन्हें आवश्यक माना गया है, वे इसे खरीदकर पी सकें। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में, दवा के रूप में भी शराब के सेवन को नकारते थे। गांधी जी के जो वारिस गांधीवादी समाज व्यवस्था बनाने का दावा करते थे, उन्होंने इस पर प्रतिबंध को संवैधानिक आवश्यकता समझ कर इसके लिए सत्ता की शक्तियों का प्रयोग भी किया।

वर्तमान स्थिति के मूल्यांकन के अनुसार इसकी सर्वस्वीकार्यता और अनिवार्यता स्वीकारने के बजाय ठेके और परमिट के आधार पर इसकी उपलब्धता की व्यवस्था की गई, जो फिलहाल केंद्र और राज्य सरकारों की आय का प्रमुख स्रोत है। पहले जो उत्पाद शुल्क इसके उपयोग को हतोत्साहित करने के लिए शुरू किया गया था, आज की तारीख में उस पर सरकारों की निर्भरता ही अनिवार्य-सी हो चली है। दूसरे पहलू पर जाएं तो मौजूदा परिस्थितियों में कोरोना महामारी से निपटने के लिए विभिन्न वर्गों व समुदायों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं। इनमें धार्मिक आस्थाओं व विश्वासों वाले पूजा-अर्चना के स्थानों पर भीड़ रोकने के लिए प्रतिबंध लगा कर उन्हें बंद भी किया गया। ऐसा प्रतिबंध शराब पर भी लगा, लेकिन उसमें अदालत द्वारा निर्णित श्रेणी में आने वालों को इसकी सुविधाओं से वंचित करने का प्रावधान नहीं था, उपलब्धता पर अंकुश ही लगाया गया था।

सवाल उठता है कि अब कोरोना महामारी से निपटने के राष्ट्रीय अभियान में तीसरे चरण की लॉकडाउन में प्राथमिकताओं का निर्धारण करते हुए इस अंकुश को हटाने की आवश्यकताओं अनुभव की गई, जबकि पिछले चरणों में नहीं अनुभव की गई थी? अभी पूर्णबंदी में जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की सर्वसुलभता के लिए जरूरी दुकानें भी पूरी तरह से खुलने की व्यवस्था नहीं हो पाई है। नाइयों के हजामत बनाने जैसे व्यवसाय पर भी, जो उनकी जीविका का मुख्य स्रोत माना जाता है, अंकुश लगा हुआ है। ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि मध्य वर्ग की शराब की लत या आवश्यकता ही शराब की दुकानें और ठेके खोलने के निर्णय का कारण बने? वास्तविकता तो यह है कि सरकारें शराब के ठेकों से होने वाले अपरिमित राजस्व लाभ के नुकसान को और लंबा नहीं खींचना चाहतीं, वरन उसकी उगाही कर लाभ उठाना चाहती थीं।

आंकड़े गवाह हैं कि लॉकडाउन के दौरान सरकारों की राजस्व आय बुरी तरह घट गई है और उनके पास इसे बढ़ाने का महज यही विकल्प है कि वे शराब के ठेके खोलें या पेट्रोलियम पदार्थों पर कर बढ़ाएं। इसलिए पूर्वोत्तर के एक राज्य ने दुनिया भर में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम गिरने के दौर में भी उन पर पांच से सात रुपए ज्यादा कर का प्रावधान किया और कच्चे तेल के बाजार के अनुसार उपभोक्ताओं के लिए पेट्रोलियम मूल्य निर्धारण का अनुपालन बंद कर दिया गया। निष्कर्ष स्पष्टत: यही है कि शराब मानव जीवन और समाज में कैसी भी लाभदायक या नुकसानदेह भूमिका निभा रही हो, सरकार द्वारा लॉकडाउन में उसके ठेके खोलने का कदम राजस्व आय के सहायक के रूप में उसका उपयोग करने और लॉकडाउन के आर्थिक प्रभावों को थोड़ा कम करने के लिए उठाया गया है। इसके लिए यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि इसके लतियों से मास्क और सुरक्षित दूरी के अनिवार्य प्रतिबंधों का पालन कैसे कराया जाएगा। इसी कारण दिल्ली में कई जगहों पर सुरक्षित दूरी के उल्लंघन के चलते ठेकों को खुलते ही बंद कर देना पड़ा।

सवाल मौजूद है कि सरकार नशेड़ियों के लिए शराब की उपलब्धता की व्यवस्था में राजस्व लाभ के सिद्धांत को स्वीकृति देगी और राज्य संचालन में महामारी के दौर में भी इस प्रकार की प्रवृत्तियों को बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू करेगी, तो समाज में क्या, किस आदर्श का और कैसा नैतिक संदेश जाएगा? फिलहाल तो इसको अवसरवादी राजनीति के अंग के रूप में ही देखा जाएगा, जिसमें संकट की इस घड़ी में भी राज व्यवस्था की शक्तियों का प्रयोग सरकारी आमदनी बढ़ाने के ऐसे साधन के रूप में किया जा रहा है, जिसे न तो संविधान ने स्वीकारा है, न ही जीवन के आदर्शों के रूप में ही स्वीकार किया जाता है। इस निर्णय से यह प्रश्न उठता है कि प्राथमिकताओं के आधार पर जनता के जीने और उसकी आवश्यकताओं या इनका निर्धारण सरकार को मिलने वाली अधिकतम आमदनी पर आधारित होगा। इसी रूप में जिन्हें नशीली वस्तुएं कहा जाता है, जिन पर अंकुश लगाने की प्रक्रिया तेज होनी चाहिए, अंकुश लग भी चुका है।

मध्य प्रदेश जैसे शराब बंदी वाले राज्य में नई दुकानें खुलवाने का निर्णय नई स्थितियों के लिए व्यवस्था बना कर और ठेके खोल कर ही संभव थी। यह कहा जा सकता है कि पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले वैट की दरों में भी वृद्धि की गई जो सकल सरकारी आय का लगभग तीस प्रतिशत की पूर्ति करते हैं। लेकिन मूल प्रश्न तो यही है कि राज्य और उसकी व्यवस्था भावी समाज का ऐसा स्वरूप बनाने के लक्ष्य पर निर्धारित होती है जिससे अधिकतम लोगों को लाभ हो सके और सामाजिक दृष्टि से जिसका प्रभाव व्यवस्था को उत्तम बनाने और ऐसा स्वरूप प्रदान करने वाला हो जो निर्धारित अपेक्षाओं के अनुकूल हो। लेकिन इस निर्णय से शराब की दुकानें पूरे देश में खोलने के निर्णय से यही लगता है कि अधिकतम लाभ की खोज में समाज को हम किस ओर ढकेलने जा रहे हैं।

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