नस्लभेद : महात्मा गांधी(Mahatma Gandhi) ने सिखाया था अश्वेतों को पाठ

21वीं सदी का सफर तय करते अमेरिकी समाज और सत्ता ने कैसी जमीनी तस्वीर बनाई है कि वहां आज भी नस्ल के आधार पर किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ ऐसे आपराधिक बर्ताव की घटनाएं सामने आती रहती हैं-
नस्लभेद : महात्मा गांधी(Mahatma Gandhi) ने सिखाया था अश्वेतों का पाठ
नस्लभेद : महात्मा गांधी(Mahatma Gandhi) ने सिखाया था अश्वेतों का पाठSocial Media

इस घटना के पीछे अमेरिका में 'श्वेत श्रेष्ठता' के अमानवीय सिद्धांत में विश्वास करने वाले कुछ नव-नाजी समूहों के अभियान से उपजी कुंठा एक मुख्य कारण नहीं है?

'जस्टिस फॉर जॉर्ज लॉयड' और 'लैक लाइव्स मैटर' जैसे पोस्टरों और बैनरों के साथ कुछ दिन पूर्व अमेरिका में शुरू हुआ प्रदर्शन अभियान यूरोप, एशिया और अफ्रीका सहित दुनिया के अनेक देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। 25 मई को अफ्रीकी मूल के अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की अमेरिका के मिनियापोलिस में उस समय मौत हो गई थी जब एक पुलिसकर्मी ने उसके हाथ बांधकर पूरी बर्बरता के साथ अपने घुटने से उसका गला दबा दिया था। इसके बाद से अमेरिका में शुरू हआ हिंसक प्रदर्शनों और लूटमार का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। अनेक पीढिय़ों से नस्लीय हिंसा, अत्याचार व नस्लीय टिप्पणियों का सामना करते आ रहे अश्वेतों का कहना है कि 'हम कट्टरपंथी गोरों की नस्लीय हिंसा और पुलिस की बर्बरत से तंग आ चुके हैं।

अनेक देशों में गोरे भी अश्वेतों पर पुलिस की बर्बरता के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं। उनके दिलों में अश्वेतों के प्रति हमदर्दी है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। इसलिए दक्षिण अफ्रीकी के केपटाउन में 'व्हाइट साइलेंस=हिंसा' जैसे पोस्टर भी देखने को मिल रहे हैं। मैंने 2009 में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान एक भारतीय के प्रति बेहद सम्मान देखा और सुना। ये थे बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने के साथ-साथ अफ्रीकियों को ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के खिलाफ लोगों को एकजुट होकर आंदोलन करने का पहला पाठ पढ़ाया था। मैंने केपटाउन, डरबन, पोर्ट एलिजाबेथ, ईस्ट लंदन आदि तमाम शहरों में लोगों से बात करने पर पाया कि गांधी के सिखाए विरोध करने के पाठ से पहले तक होता यह था कि गोरे अश्वेतों पर अत्याचार करते थे और वे चुपचाप सहते थे लेकिन गांधी ने उन्हें बताया कि जो बात ठीक न लगे उसका अहिंसक तरीके से विरोध करो।

इस विरोध प्रदर्शन में महिलाओं को भी साथ रखो। यही वजह है कि अब दक्षिण अफ्रीकी अश्वेत आजादी की खुली हवा में सांस लेते हुए गांधी को हमेशा याद रखते हैं। दक्षिण अफ्रीकी लोग गांधी का इस बात के लिए बड़ा अहसान मानते हैं कि उन्होंने सिखाया कि गलत बातों का विरोध करना चाहिए। वहां के अश्वेत गांधी के योगदान को याद करते हुए कहते हैं, 'हमें अंग्रेजों के आदेशों का विरोध करना नहीं आता था। हमें तो जो वे कहते थे हम चुपचाप जुल्म सहते हुए भी करते थे। वो गांधी ही थे जिन्होंने हमें सिखाया कि अंग्रेजों का जो आदेश आपके हित का न हो उसका विरोध करो लेकिन यह विरोध पूरी तरह से अहिंसक ही होना चाहिए। भले ही अंग्रेज कितना भी अत्याचार करें। डरबन से लगभग एक सौ किलोमीटर दूर स्थित उपनगर पीटरमारित्जबर्ग के रेलवे स्टेशन पर बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी ने महात्मा बनने की दिशा में पहला कदम उठाया था। इसी 'गांधी स्टेशन' के प्लेटफार्म पर 1893 में गांधी जी को रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से टिकट होने के बावजूद इसलिए धक्का मारकर बाहर फेंका गया था क्योंकि वह अश्वेत थे। इसके बाद गांधी उठे और उन्होंने तय किया कि अब वे दक्षिण अफ्रीका में ही रहकर अत्याचारी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आंदोलन करेंगे और दक्षिण अफ्रीकी अश्वेतों को अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जागृत करेंगे।

यही वजह है कि स्टेशन के प्रतीक्षा कक्ष में गांधी की तस्वीर है और पीतल की पट्टी पर लिखा है, 'इंडिया गेव अस बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी। वी गेव बैक इंडिया द महात्मा गांधी।(भारत ने हमें बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी दिया था लेकिन हमने वापसी में भारत को महात्मा गांधी दिया।) नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका की आजादी के लिए बरसों बरस जेल में कैद रहे लेकिन दक्षिण अफ्रीकी गांधी को उनसे भी बड़ा दर्जा देते हैं क्योंकि, गांधी के पद्चिन्हों पर चलते हुए ही मंडेला ने स्वतंत्रता आंदोलन को धार दी थी। गांधी को दक्षिण अफ्रीका में बेहद प्यार और सम्मान मिलता है। ईस्ट लंदन शहर में सत्तर बरस के एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, 'जब 30 जनवरी 1948 के दिन गांधी जी की मृत्यु हुई तो हम सार्वजनिक रूप से शोक व्यक्त करने के लिए एकत्रित नहीं हो सके थे। उस समय दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश राज था और हम डर गए थे कि अगर हम घरों से बाहर निकल कर शोक सभा करेंगे तो हमें मारा पीटा जाएगा और जेल में डाल दिया जाएगा। इस बात का मलाल हमें आज भी है कि जिस महान व्यक्ति ने हमारे लिए इतना कुछ किया उसकी याद में हम मिलकर आंसू भी नहीं बहा सके। हमें उस दिन हिम्मत दिखानी चाहिए थी। इस कायरता के लिए हम खुद को कभी माफ नहीं कर पाएंगे।

ये बीसवीं शताब्दी के अफ्रीकी मूल के अश्वेत के विचार थे लेकिन अब 21वीं शताब्दी के अश्वेत दुनिया के सबसे ताकतवर देश में बीच सड़क पर पुलिसिया अत्याचार से हुई अपने साथी की मौत पर खुलकर शोक मनाने के साथ-साथ जोरशोर से हिंसक विरोध प्रदर्शन करने में नहीं चूक रहे हैं। इनकी मुहिम शहर, देश और महाद्वीपों की सीमाएं लांघते हुए छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, पढ़े लिखे, अनपढ़, राजनीतिज्ञों, शासकों, खिलाडिय़ों और कलाकारों आदि करोड़ों लोगों के दिलों में हमदर्दी पैदा कर गई है। जिसे देखते हुए इसमें दो राय नहीं हो सकतीं कि जॉर्ज फ्लॉयड की मौत व्यर्थ नहीं जाएगी और बराबरी के हक की लड़ाई में अश्वेतों को एक दिन सफलता जरूर दिलाएगी। जिस दिन ऐसा होगा, नई पीढ़ी के अश्वेतों को महात्मा गांधी फिर याद आएंगे उनके दिलों में सबारमती के संत के प्रति सम्मान और बढ़ेगा।

सवाल है कि 21वीं सदी का सफर तय करते अमेरिकी समाज और सत्ता ने कैसी जमीनी तस्वीर बनाई है कि वहां आज भी नस्ल के आधार पर किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ ऐसे आपराधिक बर्ताव की घटनाएं सामने आती रहती हैं। या इस घटना के पीछे अमेरिका में 'श्वेत श्रेष्ठता' के अमानवीय सिद्धांत में विश्वास करने वाले कुछ नव-नाजी समूहों के अभियान से उपजी कुंठा एक मुख्य कारण नहीं है? दरअसल, एक सभ्य और सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के दावे के बीच अमेरिका में नस्लीय श्रेष्ठता के मनुष्य विरोधी सिद्धांत में विश्वास रखने वाले कुछ नव-नाजी समूहों ने अपना कुत्सित प्रचार अभियान जारी रखा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका में ऐसे नव-नाजी समूहों के बरस श्वेत समुदाय का बड़ा हिस्सा श्वेत श्रेष्ठता में विश्वास रखने वालों के खिलाफ है। यही वजह है कि जॉर्ज फ्लॉयड की नस्लवादी हत्या के खिलाफ जब समूचे अमेरिका और यूरोप से लेकर सेंट पीटर्सबर्ग तक में आक्रोश भड़का हुआ है, तब उसमें अश्वेतों के दुख और गुस्से में श्वेत समुदाय के लोग शामिल हैं।

यह याद रखने की जरूरत है कि अमेरिका में 1860 के दशक में अश्वेतों को गुलाम बनाए रखने के खिलाफ एक व्यापक गृहयुद्ध हुआ था, लेकिन आज भी अगर अमेरिका में श्वेत श्रेष्ठता की कुंठा में जीते कुछ लोग उसी दौर की वापसी चाहते हैं तो वहां के समाज की यह जिम्मेदारी बनती है कि वैसे तत्वों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए आंदोलन चलाएं। अतीत में अश्वेतों के खिलाफ जितनी तरह की नाइंसाफी हुई है, उसकी भरपाई आज उनके लिए बराबरी पर आधारित व्यवस्था ही हो सकती है।

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