समूचे हिंदुस्तान की चिकित्सीय व्यवस्था बीते दो-तीन दिनों से चरमरा सी गई है। मरीज बेहाल हैं, ओपीडी में हड़ताली डॉक्टरों ने ताले जड़ दिए हैं। अस्पताल सूने पड़े हैं, सभी चिकित्सक अस्पतालों के बाहर धरने पर बैठे हुए हैं। मरीजों की दर्द से तड़पने की चीखें अस्पतालों से बाहर तक आ रही हैं। लेकिन चिकित्सक उन्हें सुनकर भी अनसुना कर रहे हैं। चिकित्सकों की हड़ताल का पूरे भारत में बुरा असर पड़ रहा है। स्थिति को देखकर केंद्र सरकार भी परेशान है। सरकार की तरफ से भी कोशिशें हो रही हैं, पर हड़ताली डॉक्टर मानने को राजी नहीं हैं। लेकिन इस समय हड़ताल के बीच चिकित्सकों को अपने नैतिक मूल्यों की रक्षा करना नहीं भूलना चाहिए, जो डिग्री लेते वक्त प्रण लिया जाता है। गौरतलब है कि देशभर के चिकित्सक इस समय मुखर होकर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक 2019 का विरोध कर रहे हैं।
हड़ताली डॉक्टरों को मनाने के लिए शुक्रवार सुबह खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन दिल्ली में डॉक्टरों से मिले। उनसे बातचीत की और हड़ताल वापस लेने के लिए काफी समझाया, लेकिन उनका प्रयास भी बेनतीजा रहा। चिकित्सक अब किसी भी सूरत में एमएमसी विधेयक लागू नहीं करना चाहते हैं। बता दें, केंद्र सरकार द्वारा लोकसभा में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक 2019 के पारित करने के बाद से ही देशभर के डॉक्टर हड़ताल पर चले गए हैं। इस विधेयक के विरोध में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने देशव्यापी हड़ताल की घोषणा का एलान कर दिया था। हड़ताल के चलते हिंदुस्तान के ज्यादातर अस्पतालों की ओपीडी सेवाएं बंद हो गई हैं। लोभतंत्र के आगे लोकतंत्र कभी-कभी बौना साबित हो जाता है। अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी की जिदंगी को दांव पर लगा देना, समझदारी नहीं, बल्कि कायरता की श्रेणी में ही आता है।
इस वक्त चिकित्सक सिर्फ अपना भला देख रहे हैं, लेकिन उन्हें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं कि उनकी हड़ताल से दूसरों को कितनी तकलीफें हो रही हैं। देशव्यापी हड़ताल में करीब तीन से चार लाख चिकित्सक इस समस हड़ताल पर हैं। ऐसे में हड़ताल के कारण मरीजों को भयंकर परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। आईएमए का साफ कह देना कि कोई भी चिकित्सक किसी मरीज को अपनी सेवा नहीं देगा, यह तुगलकी फरमान जैसा दिखाई पड़ता है। हड़ताल की आड़ में कहीं न कहीं सियासत भी होने लगी है। कई जगहों पर हड़ताली चिकित्सकों को विपक्षी दल भी अपना समर्थन देने लगे हैं। जबकि, कायदे से उनको समझाना चाहिए और काम पर लौटने की सलाह देनी चाहिए, लेकिन सियासी दल हड़ताल में भी राजनीति करने से नहीं चूक रहे। देश भर में एमबीबीएस की कुल 80 हजार सीटें होती हैं, जिसमें आधी सीटें सरकारी कॉलेजों के लिए निर्धारित रहती हैं जिसमें छात्रों से बहुत कम फीस ली जाती है। एमसीआई के पास निजी कॉलेजों की फीस पर नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं होता, लेकिन इस विधेयक में इसकी व्यवस्था की गई है।
हड़ताली चिकित्सक एमएमसी विधेयक का विरोध क्यों कर रहे हैं इस थ्योरी को भी समझना जरूरी है। दरअसल, अभी तक चिकित्सा शिक्षा, मेडिकल संस्थानों और डॉक्टरों के रजिस्ट्रेशन से संबंधित काम मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया किया करती थी जिसमें सरकार बदलाव चाहती है। चिकित्सकों को लगता है सरकार एमसीआई की शक्तियां कम करना चाहती है। चिकित्सा तंत्र को अपने कब्जे में लेना चाहती है। लोकसभा में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक 2019 पास हो चुका है। बिल पास होने के बाद एनएमसी विधेयक मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जगह ले लेगा। बिल के तहत साढ़े तीन लाख नॉन मेडिकल लोगों को लाइसेंस देकर सभी प्रकार की दवाइयां लिखने और इलाज करने का कानूनी अधिकार प्रदत्त किया जाएगा। इसी का डॉक्टर विरोध कर रहे हैं।
प्रत्येक क्षेत्र में पारदर्शिता को लेकर इस वक्त केंद्र सरकार ने मुहिम छेड़ी हुई है। इसी कड़ी में चिकित्सा तंत्र को भी शामिल किया गया है। हमारे यहां का चिकित्सीय तंत्र का ढांचा बहुत पुराना है। अंग्रेजी के वक्त नियम-कानून आज भी लागू हैं। लेकिन मोदी सरकार अब उनमें बदलाव चाहती है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग से चिकित्सकों की मनमानी काफी हद तक रुकेगी। उनके काम करने के तरीकों पर सीधे केंद्र सरकार की निगरानी हुआ करेगी। चिकित्सा तंत्र मौजूदा समय में सबसे ज्यादा कमाई करने का क्षेत्र बन गया है। एक गरीब इंसान के लिए ईलाज कराना कोसों दूर होता जा रहा है। सरकार इसी खाई को पाटने की कोशिश में है। केंद्र सरकार लाइसेंस देकर सभी प्रकार की दवाइयां की कीमत पर नियंत्रण करना चाहती है। लेकिन चिकित्सक नहीं चाहते कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग लागू हो। चिकित्सक अस्पतालों और अपने घरों में स्थित क्लीनिक दोनों जगहों पर महंगी दवाइयों की आड़ में धन की कमाई करते हैं। अगर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अमल में आ गया, तो उनकी कमाइयों पर ताला पड़ जाएगा।
एमएमसी को लेकर सरकार और चिकित्सकों में भी मत काफी भिन्न हैं। डॉक्टरों की माने तो नए बिल से होमियोपैथिक और आयुर्वेदिक चिकित्सक भी अंग्रेजी दवा दे सकेंगे, जिससे झोलाछाप कल्चर को बढ़ावा मिलेगा। जो आम गरीब की जान से खिलवाड़ करने जैसा होगा। इससे न सिर्फ चिकित्सा शिक्षा के मानकों में, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं में भी गिरावट आएगी। रेजिडेंट चिकित्सक यह भी मानते हैं कि आयुष डॉक्टरों को दवाएं लिखने का अधिकार देने से आयुर्वेद व होम्योपैथी का महत्व भी कम होगा। दअसल, चिकित्सकों के दोनो धड़ों में भी एमएमसी को लेकर एकमत नहीं है। दोनों में बिखराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है। लेकिन फिर भी डाक्टरों को अपना कर्तव्य निभाते हुए नैतिकता का ख्याल रखना चाहिए। उन्हें मरीजों की परवाह करनी चाहिए। कंेद्र सरकार को इस मसले को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। उन्हें तत्काल प्रभाव से हड़ताली डॉक्टरों के सभी प्रमुखों के साथ आपात बैठक आयोजित करनी चाहिए और एनएमसी में बदलाव या संशोधन की अगर कोई गुंजाइश हो तो उसे किया जाए क्योंकि बीते तीन दिनों की हड़ताल ने कई मरीजों की जाने ले ली। समस्या ज्यादा विकराल रूप न ले, इसके लिए सरकार को तुरंत प्रभाव से कोई प्रभावी फैसला लेना होगा।
डॉक्टरों को देश में भगवान का दर्जा दिया जाता है, पर कुछ समय से डॉक्टरों की हड़ताल का सिलसिला चल निकला है। बात-बात पर मरीजों को उनके हाल पर छोड़ देने से अब देश में डॉक्टरों की छवि पर बट्टा लग रहा है। अत: जरूरी है कि डॉक्टर अब हड़ताल का रास्ता छोड़ें और सरकार के साथ जो भी मतभेद हों, उन्हें बातचीत से दूर करे। केंद्र सरकार ने अगर कानून में बदलाव की पहल की है तो पहले उसके गुण-दोष देखे जाने चाहिए। सिर्फ शंका के आधार पर देशभ की स्वास्थ्य सुविधाओं को ठप कर देना मानवीयता के खिलाफ है और किसी की जान से खिलवाड़ भी।
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