विज्ञान ही बचाएगा संकट से

भारत में संक्रामक और गैर-संक्रामक बीमारियों से बड़ी संख्या में होने वाली मौतों का कारण स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का अभाव है।
Only science will save from crisis
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राज एक्सप्रेस। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र पर बहुत ही कम निवेश किया जाना इसके पीछे बड़ी वजह है। भारत दुनिया के उन देशों में से है जो स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सबसे कम खर्च करते हैं। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र पर और अधिक ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

जान है तो जहान है। आज पूरी दुनिया जिस संकट से गुजर रही है, उसमें यह बिल्कुल सही भी है। जान से बड़ी कोई चीज नहीं और जान के लिए सेहत से ज्यादा जरूरी कुछ भी नहीं। कहा गया है कि सेहत सबसे बड़ी नेमत है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि हर व्यक्ति के जीवन में अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो वह है सेहत, क्यूँकि सेहत ही जीवन की बुनियाद है। सेहत को लेकर किसी भी तरह की लापरवाही किसी को भी मृत्यु के करीब ला सकती है। इसी को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार करार दिया गया था। लेकिन आज हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जो विषय हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण होना चाहिए था, वही सर्वाधिक उपेक्षित है। यह उपेक्षा सरकार के स्तर पर तो है ही, व्यक्ति और समाज के स्तर पर भी है।

भारत में आमतौर पर सामान्य व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को लेकर तब तक चिंता नहीं करता है, जब तक कि उसे कोई गंभीर बीमारी नहीं हो जाए। असर लोग अपनी बीमारी की लंबे समय तक अनदेखी करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि मामूली बीमारी भी गंभीर रूप धारण कर लेती है और जीवन संकट में पड़ जाता है। जानते-बूझते बीड़ी-सिगरेट पीना, पान-गुटका, तंबाकू चबाना, शराब पीना, खाने-पीने और साफ-सफाई के प्रति लापरवाही बरतना आदि स्वास्थ्य को लेकर हमारी उदासीनता का ही उदाहरण है। व्यक्ति ही नहीं, बल्कि हमारा समाज भी स्वास्थ्य को लेकर चिंतित या जागरूक नहीं है। संभवत यही कारण है कि समाज में प्रदूषण, स्वच्छ पेयजल, खाद्य पदार्थों में मिलावट, सर्वसुलभ चिकित्सा सेवा जैसे स्वास्थ्य एवं जीवन को प्रभावित करने वाले विषय कभी भी चुनावी मुद्दे नहीं बनते। जिस देश में हर छोटी-बड़ी बातों को लेकर लेकर आंदोलन होते रहे हैं, उस देश में शायद ही स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन हुआ हो।

धर्म, जाति सहित कई छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर हम मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन चमकी बुखार जैसी किसी बीमारी या किसी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी के कारण दर्जनों बच्चों की मौत हमें नहीं झकझोरती। जब व्यक्ति और समाज के स्तर पर स्वास्थ्य को लेकर कोई गंभीरता नहीं है, तो सरकारों के स्तर पर स्वास्थ्य को लेकर गंभीरता का नहीं होना स्वाभाविक ही है। इसका मूल कारण यही है कि सरकार की नीतियों एवं प्रथामिकताओं का निर्धारण व्यक्ति और समाज से ही होता है। इसलिए सरकार की प्राथमिकताओं में स्वास्थ्य हमेशा से सबसे निचले पायदान पर रहा है। इसके कई सामाजिक, राजनीतिक, भौगोलिक और प्रशासनिक कारण हैं। कारण चाहे जो भी हों, लेकिन देश के ज्यादातर हिस्सों में स्वच्छ पेयजल, गंदे पानी की निकासी, कूड़े-कचरे के निबटान और स्वच्छता जैसे जन स्वास्थ्य को निर्धारित करने वाले बुनियादी ढांचों का या तो अभाव है या ये बहुत ही बदतर स्थिति में हैं।

इन कारणों से ही देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोग समय-समय पर संक्रामक बीमारियों की चपेट में आते रहते हैं। समस्या यहीं तक ही सीमित नहीं है। दशकों से भारत स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव झेलने को विवश है। देश के ज्यादातर हिस्सों में अस्पतालों या स्वास्थ्य केंद्रों का अभाव है और जो अस्पताल या स्वास्थ्य केंद्र हैं भी, वे भी खस्ताहाल हैं। वहां जरूरी चिकित्सा सुविधाओं की कमी है। मिसाल के तौर पर, साल 2017 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के बीआरडी कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी के कारण साठ से अधिक बच्चों की मौत हो गई थी। 2019 में बिहार के मुजफरपुर में चमकी बुखार के कारण दो सौ से अधिक बच्चे मारे गए थे। तपेदिक, मलेरिया, हैजा, कालाजार, डेंगू, चिकनगुनिया और डायरिया जैसी जल जनित बीमारियां भारत में स्वास्थ्य की समस्याएं बनी हैं।

भारत में बीमारियों से होने वाली कुल मौतों में एक चौथाई मौतें डायरिया, सांस संबंधी दिक्कत, तपेदिक और मलेरिया के कारणों होती हैं। साथ ही, एड्स, इबोला विषाणु, एवियन जुकाम, एच1एन1 विषाणु इत्यादि के होने का खतरा हमेशा बना रहता है। संक्रामक रोगों के साथ-साथ गैर-संक्रामक रोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि गंभीर चिंता का विषय है। पर्यावरण प्रदूषण और जीवन शैली, शराब के सेवन, धूम्रपान, वसायुक्त खानपान और स्थूल जीवनशैली के कारण देश में मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग एवं कैंसर जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ा है। कई सामान्य-सी लगने वाली बीमारियां भी व्यापक स्तर फैलने लगती हैं और आबादी को प्रभावित करती हैं। भारत में हर साल 28 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हृदय संबंधी बीमारियों से हो जाती है। आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद की नेशनल कैंसर रजिस्टरी प्रोग्राम के अनुसार भारत में हर दिन तेरह सौ से अधिक लोगों की मौत कैंसर से हो जाती है।

भारत में संक्रामक एवं गैर संक्रामक बीमारियों से बड़ी संख्या में होने वाली मौतों का कारण स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का अभाव है। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र पर बहुत ही कम निवेश किया जाना इसके पीछे बड़ी वजह है। भारत दुनिया के उन देशों में से है जो स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सबसे कम खर्च करते हैं। भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज 1.3 फीसद खर्च करता है, जबकि इसी मद में ब्राजील लगभग 8.3 फीसद, रूस 7.1 फीसद और दक्षिण अफ्रीका 8.8 फीसद खर्च करता है। दक्षेस देशों में अफगानिस्तान 8.2 फीसद, मालदीव 13.7 फीसद और नेपाल 5.8 फीसद खर्च करता है। दूसरे पड़ोसी चीन, बांग्लादेश और पाक स्वास्थ्य क्षेत्र पर भारत से कहीं ज्यादा खर्च करते हैं।

स्वास्थ्य क्षेत्र पर कम खर्च किए जाने के कारण ही भारत में चिकित्साकर्मियों एवं स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन भारत में सात हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है। देश में चौदह लाख डॉक्टरों की कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह स्थिति और बुरी है। देश में स्वास्थ्य क्षेत्र का बुनियादी ढांचा कैसा हो, स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता कैसी हो, इसका पता आज चल रहा है, जब हम एक महामारी का सामना कर रहे हैं। कोविड-19 का हमला हमें यह सोचने को विवश करता है कि देश में स्वास्थ्य क्षेत्र की सेहत पर अगर अब भी ध्यान नहीं दिया तो आने वाले वक्त में भीषण बीमारियों के प्रकोप से हमें कोई नहीं बचा पाएगा।

भारत में कोविड-19 के मामलों का अब जिस तेजी से प्रसार हो रहा है, उससे जन स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पैदा हो सकता है। भारत की घनी आबादी, बीमारियों के प्रति लोगों में लापरवाही, जागरूकता के अभाव और कोविड-19 की जांच की सीमाओं को देखते हुए इस बात की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या इस महामारी से प्रभावित दुनिया के किसी भी देश की तुलना में अधिक हो सकती है।

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