गरीबी: प्रयासों में कमी क्यों

देश में गरीबी मिटाने पर जितना धन खर्च हुआ है, वह कम नहीं है। केंद्र सरकार के हर आम बजट का बड़ा भाग आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए आवंटित रहता है
देश में गरीबी
देश में गरीबीPankaj baraiya - RE

राज एक्सप्रेस। गरीबी का मतलब है गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीना। किसी भी स्वतंत्र देश के लिए गरीबी एक बहुत शर्मनाक स्थिति है। ऐसे में भारत ने अपने लोगों को गरीबी के दलदल से निकालने की दिशा में लंबी छलांग लगाई है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2006 से 2016 के बीच 27 करोड़ से ज्यादा लोगों को गरीबी से बाहर निकला गया। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में भारत के करीब 64 करोड़ यानी 55 फीसद लोग गरीबी में जी रहे थे। साल 2015-16 में यह संख्या घटकर 37 करोड़ पर आ गई। इस प्रकार भारत ने बहुआयामी स्तरों और दस मानकों में पिछड़े लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में उल्लेखनीय प्रगति की है। यूएनडीपी की इस रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि गरीबी कम करने की दिशा में पहल करने वाले देशों में दुनियाभर में भारत समेत दक्षिण एशियाई देश सबसे आगे हैं। यह एक आशाजनक संकेत है कि गरीबी के खिलाफ वैश्विक लड़ाई जीती जा सकती है।

यूएनडीपी ने गरीबी और मानव विकास पहल (ओपीएचआई) का जो सूचकांक तैयार किया है, उसमें गौर करने वाली बात यह है कि गरीबी के दायरे से बाहर होने वालों में मुस्लिम, दलित और अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की संख्या काफी ज्यादा रही। पिछले एक दशक में भारत में समाज के सबसे गरीब तबके की स्थिति में सुधार आया है। खास बात यह है कि भारत में भी गरीबों के उत्थान में सबसे तेज रफ्तार झारखंड की रही है। हाल में एक अमेरिकी शोध संस्था- ब्रूकिंग्स की ओर से भारत में गरीबी को लेकर जारी आंकड़े सरकार को सुकून देने वाले थे। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि पिछले कुछ साल में भारत में गरीबों की संख्या बेहद तेजी से घटी है। सबसे अच्छी बात यह है कि भारत के ऊपर से सबसे ज्यादा गरीब देश होने का ठप्पा भी खत्म हो गया है। देश में हर मिनट 44 लोग गरीबी रेखा के ऊपर आ रहे हैं। यह दुनिया में गरीबी घटने की सबसे तेज दर है।

रिपोर्ट के अनुसार देश में 2022 तक तीन फीसद से कम लोग ही गरीबी रेखा के नीचे होंगे। वहीं 2030 तक बेहद गरीबी में जीने वाले लोगों की संख्या देश में नहीं के बराबर रहेगी, लेकिन विश्व बैंक इससे अलग सोचता है। उसका मानना है कि अभी भारत में दुनिया की एक तिहाई गरीब आबादी रहती है। इसमें से 32.7 फीसद आबादी ऐसी है जो सवा डॉलर (सौ रुपए से भी कम) से कम में गुजारा कर रही है। जबकि 68.7 फीसद आबादी ऐसी है, जिसे दो डॉलर (डेढ़ सौ रुपए लगभग) रोजाना से कम में गुजारा करना पड़ रहा है। लेकिन वर्तमान में भारत में गरीबी के मापदंड ही सवालों के घेरे में हैं। हमारे यहां गरीबी की एक नहीं, कई परिभाषाएं हैं। तेंदुलकर समिति के मानक के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 27 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 33 रुपए प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर रखा गया और इस मानक के अनुसार गरीबी रेखा वाली आबादी में 22 फीसद की गिरावट दर्ज की गई। यह आकलन काफी विवादास्पद रहा था। रंगराजन समिति ने इस सीमा को बढ़ा दिया, जिसमें ग्रामीण इलाकों में 32 और शहरी इलाकों में 47 रुपए प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से बाहर रखा गया और गरीबी में तीस फीसद गिरावट की बात कही गई।

नीति आयोग के अनुमान के मुताबिक शहरों में 65 रुपए और ग्रामीण इलाकों में 22 रुपए 42 पैसे से ज्यादा रोजाना खर्च करने वाले लोग गरीब नहीं हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या ये आंकड़े गरीबी की परिभाषा तय करने के लिए पर्याप्त हैं? आजादी के सात दशक बाद भी भारत में गरीब और गरीबी पर लगातार अध्ययन और खुलासे हो रहे हैं। भारत को आज भी विकासशील देश की श्रेणी में रखा जाता है। अभी भी यहां गरीबी रेखा से नीचे बड़ी आबादी रहती है। भले हम संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट से खुश हो सकते हैं कि भारत को गरीबी कम करने की दिशा में बड़ी कामयाबी मिली है लेकिन हम इस सच्चाई से भी इनकार नहीं कर सकते कि अब भी दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब भारत में रहते हैं। अब भी 36 करोड़ से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप में गरीबी झेल रहे हैं। भारत में 1990 से 2017 के बीच सकल राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय में 266.6 फीसद का इजाफा हुआ है। क्रय क्षमता के आधार पर भारत की प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय करीब 4.55 लाख रुपए पहुंच गई है जो पिछले साल से 23,470 रुपए अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के चार राज्यों- बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में गरीबों की संख्या सर्वाधिक है।

गौर करने वाली बात यह है कि इन चारों राज्यों में पूरे भारत के आधे से ज्यादा गरीब रहते हैं जो करीब बीस करोड़ की आबादी है। स्पष्ट है, गरीबी न केवल भारत, बल्कि दुनिया के अन्य विकासशील व पिछड़े देशों के लिए भी अभिशाप बनी हुई है। इसीलिए अभी भी अपेक्षाकृत गरीबों की बेहतरी के लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।देश में गरीबी की दर घटने को लेकर लोगों की यह धारणा कुछ हद तक सही हो सकती है कि केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का इसमें योगदान है। लेकिन इन योजनाओं से कितनी और किस तरह गरीबी दर में कमी आ रही है, यह दावा विवादों को ही जन्म दे रहा है। ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन और इनमें भ्रष्टाचार को सवाल उठते रहे हैं। एक तरफ तो विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था होने की आत्ममुग्धता तो दूसरी तरफ विश्व के एक तिहाई गरीबों को अपने दामन में समेटे रहने का कलंक।

देश में गरीबी मिटाने पर जितना धन खर्च हुआ है वह कम नहीं है। केंद्र सरकार के हर बजट का बड़ा भाग आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए आवंटित रहता है, किंतु इसके अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिलते। ऐसा लगता है कि या तो प्रयासों में कहीं कमी है या फिर प्रतिबद्धता नहीं है, या लक्ष्यों की दिशा ही गलत है। गरीबी वाकई बड़ा अभिशाप है जिसे हम सदियों से झेलते आ रहे हैं। यह कैसे और कब तक दूर होगा, यह एक बड़ा विचारणीय मुद्दा है। भले ही सरकारी और गैर सरकारी प्रयास हर स्तर पर किए जाते हैं ताकि कोई भी गरीब न रहे। लेकिन काम कठिन है। यदि आबादी के बोझ से हमसे भी ज्यादा दबा चीन गरीबी से उबर सकता है तो हम क्यों नहीं? इसे दुर्भाग्य ही कहें कि भारत में हर साल गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। फिर भी भारत की सवा सौ करोड़ की विशाल आबादी में एक चौथाई से भी ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।

बेशक आज देश में अनाज की कोई कमी नहीं है, फिर भी गरीबी, भुखमरी से लोग मर रहे हैं। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? सरकार को दोष दें या समाज को। हम आज तक उन कारकों की पहचान नहीं कर पाए हैं, जिसकी वजह से गरीबों का जीवन नारकीय बना हुआ है। अगर समस्या दूर करनी है, तो इस दिशा में काम करना ही होगा। गरीबों के प्रति दया का नहीं स्वावलंबन का भाव जागृत करना होगा। उन्हें उन सभी कामों में भागीदार बनाना होगा, जो आज तक उनके हिस्से में आया ही नहीं या लाया नहीं जा सका।

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