श्रीकृष्ण 10 अवतारों में से एक मात्र 16 कलाओं से निपुण पूर्णावतार थे

श्रीकृष्ण की सिखाई गई बातें युवाओं के लिए इस युग में भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं, जितनी अर्जुन के लिए रहीं। कृष्ण हर मोर्चे पर क्रांतिकारी विचारों के धनी रहे हैं।
श्रीकृष्ण 10 अवतारों में से एक मात्र 16 कलाओं से निपुण पूर्णावतार थे
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श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह किसी बंधी-बंधाई लीक पर नहीं चले। मौके की जरूरत के हिसाब से उन्होंने अपनी भूमिका बदली और अर्जुन के सारथी तक बने। कृष्ण ने पांडवों का साथ हर मुश्किल वत में देकर यह साबित कर दिया था कि दोस्त वही अच्छे होते हैं जो कठिन से कठिन परिस्थिति में आपका साथ देते हैं।प्राचीन संस्कृत साहित्य की मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण दस अवतारों में से एक मात्र 16 कलाओं से निपुण पूर्णावतार थे। कृष्ण को लोक मान्यताएं प्रेम और मोह का अभिप्रेरक मानती हैं। इसीलिए मान्यता है कि कृष्ण के सम्मोहन में बंधी हुई गोपियां अपनी सुधबुध और मर्यादाएं भूल जाया करती थीं। कृष्ण गोपियों को ही नहीं समूचे जनमानस को अपने अधीन कर लेने की अद्भुत एवं अकल्पनीय नेतृत्व क्षमता रखते थे। अतऐव उन्होंने जड़ता के उन सब वर्तमान मूल्यों और परंपराओं पर कुठाराघात किया जो स्वतंत्रता को बाधित करते थे। यहां तक कि जिस इंद्र को जल का देवता और तीनों लोकों का अधिपति माना जाता था, उन्हें भी मामूली ग्वाले कृष्ण ने चुनौती दी और उनकी पूजा को ब्रजमंडल में बंद करा दिया। वे कृष्ण ही थे, जिन्होंने कुरुक्षेत्र के रण प्रांगण में अर्जुन को आसति मुत कर्म करने का उपदेश दिया। संदेश था आसति रहित कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

जब कंस के आमंत्रण पर अकरूर कृष्ण को लेने गोकुल आए तो कृष्ण के अनुराग में लिप्त गोप-गोपियों में हाहाकार मच गया क्यूंकि कंस की दुष्टता से सब परिचित थे और 11 वर्षीय कृष्ण सबको नादान लगते थे। लेकिन कृष्ण ने आमंत्रण स्वीकार किया और निर्लिप्त भाव से मथुरा के लिए प्रस्थान कर गए। जिस बंसुरी की धुन से कृष्ण गोपियों को लालायित किया करते थे उस बांसुरी को भी गोपियों को दे गए। अपने बाल सखाओं और गोपियों को छोड़ते वत कृष्ण को भी दुख था लेकिन वे कर्तव्य के दायित्व बोध से संचालित हो रहे थे। गोया निर्लिप्त भाव का प्रगटीकरण आवश्यक था। यदि कृष्ण मोह के बंधन में बंधकर रह जाते तो कंस के दुराचारी शासन से बृजमंडल को मुति नहीं मिलती। अर्थात यहां के लोग परतंत्रता ही झेलते रहते। कृष्ण की इस निर्लिप्तता में संदेश अंतनिर्हित है कि अपनी स्वतंत्रता के लिए न केवल सचेत रहना चाहिए अपितु जरूरत पडऩे पर क्रूरतम इरादों से भी संघर्ष के लिए तत्पर रहना चाहिए क्यूंकि संघर्ष के बिना स्वतंत्रता न तो प्राप्त करना संभव है और न ही उसकी रक्षा करना।

कृष्ण यह भी संदेश देते हैं कि शासक कोई भी हो समय कितना भी विपरीत हो विजय हमेशा सत्य और धर्म की होती है। जब कृष्ण का शिशु रूप में अवतरण हुआ तब उनके जन्म के साथ ही हत्या की प्रत्यक्ष भूमिका रच दी गई। उनके छह नवजात भ्राताओं की माता पिता की खुली आंखों के सामने ही एक-एक कर हत्या कर दी गई। उनकी जान बचाने के लिए भी एक निर्दोष सद्यजात बालिका को बलि वेदी की भेंट चढऩा पड़ा। लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ ही व्यतिगत स्वतंत्रता का नाद होता है। कारागार के एक-एक कर ताले टूटते चले जाते हैं। प्रहरी नींद के आगोश में आ जाते हैं। पिता वसुदेव कृष्ण को डलिया में रखकर निनाद करती यमुना को पार कर गोकुल में नंद यशोदा के घर छोड़ आते हंै। यह कहानी इस बात कि प्रतीक है कि सद्भावनाओं पर प्रतिबंध स्थाई नहीं रहते। शासक भले ही कितना ही शतिशाली हो एक दिन अन्यायरूपी बंधन के तालों को टूटना ही पड़ता है। कृष्ण को आयु के अनुपात से कहीं ज्यादा सतर्कता, चैतन्यता और संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा! ऐसे विकट और विषात परिवेश में अपनी, अपने समाज की प्राण रक्षा के लिए छलकपट और लुकाछिपी के अनेक खेल खेलने पड़े। यदि ये खेल कृष्ण नहीं खेलते तो या बच पाते? विस्मय नहीं कि जब लोकतंत्र से राजतंत्र की भिडं़त होती है तो जड़ हो चुकी स्थापित मान्यताओं के परिवर्तन की मांग उठती ही है। प्राण खतरे में डालकर कठोर संघर्ष करना ही पड़ता है। इतिहास साक्षी है इन्हीं संकट और षड्यंत्रों से सामना करने वाले साहसी ही ईश्वर, नायक और नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे हैं।

कृष्ण बाल जीवन से ही जीवन पर्यंत सामाजिक न्याय की स्थापना और असमानता को दूर करने की लड़ाई इंद्रदेव व कंस की राजसाा से लड़ते रहे। वे गरीब की चिंता करते हुए खेतीहर संस्कृति और दुग्ध क्रांति के माध्यम से ठेठ देशज अर्थव्यवस्था की स्थापना और विस्तार में लगे रहे। सामारिक दृष्टि से उनका श्रेष्ठ योगदान भारतीय अखंडता के लिए उल्लेखनीय है। इसीलिए कृष्ण के किसान और गौपालक कहीं भी फसल व गायों के क्रय-विक्रय के लिए मंडियों में पहुंचकर शोषणकारी व्यवस्थाओं के शिकार होते दिखाई नहीं देते। कृष्ण जड़ हो चुकी उस राज और देव साा को भी चुनौती देते हैं जो जन विरोधी नीतियां अपनाकर लूटतंत्र व अनाचार का हिस्सा बन गई थी। भारतीय लोक के कृष्ण ऐसे परमार्थी थे, जो चरित्र भारतीय अवतारों के किसी अन्य पात्र में नहीं मिलता। कृष्ण का पूरा जीवन समृद्धि के उन उपायों के विरुद्ध था जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुति, समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्न बनाने के गुर गढऩे में कृष्ण का चिंतन लगा रहा। इसीलिए कृष्ण जब चोरी करते हैं, स्नान करती स्त्रियों के वस्त्र चुराते हैं, खेल-खेल में यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए कालिया नाग का मानमर्दन करते हैं तो उनकी ये सब चंचलताएं रूपी हरकतें अथवा संघर्ष उत्सवप्रिय हो जाते हैं। नकारात्मकता को उत्सवधर्मिता में बदल देने का गुरुमंत्र कृष्ण चरित्र के अलावा दुनिया के किसी अन्य इतिहास नायक के चरित्र में विद्यमान नहीं हैं।

भारतीय मिथकों में कृष्ण के अलावा कोई दूसरी ईश्वरीय शक्ति ऐसी नहीं है जो राजसत्ता से ही नहीं। उस पारलौकिक सत्ता के प्रतिनिधि इंद्र से विरोध ले सकती हो जिसका जीवनदायी जल पर नियंत्रण था। यदि हम इंद्र के चरित्र को देवतुल्य अथवा मिथक पात्र से परे मनुष्य रूप में देखें तो वे जल प्रबंधन के विशेषज्ञ थे। लेकिन कृष्ण ने भ्रष्ट व अनियमित हो चुकी उस देवसत्ता से विरोध लिया जिस सत्ता ने इंद्र को जल प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी और इंद्र जल निकासी में पक्षपात बरतने लगे थे। किसान को समय पर जल चाहिए अन्यथा फसल चैपट हो जाने का संकट उसका चैन हराम कर देता है। कृष्ण के नेतृत्व में कृषक और गौपालकों के हित में यह शायद दुनिया का पहला आंदोलन था जिसके आगे प्रशासकीय प्रबंधन नतमस्तक हुआ और जल वर्षा की शुरुआत किसान हितों को देखते हुए हुई। पुरुषवादी वर्चस्ववाद ने धर्म के आधार पर स्त्री का मिथकीकरण किया। इंद्र जैसे कामी पुरुषों ने स्त्री को स्त्री होने की सजा उसके स्त्रीत्व को भंग करके दी। देवी अहिल्या के साथ छलपूर्वक किया गया दुराचार इसका शास्त्र सम्मत उदाहरण है।

कृष्ण युद्ध कौशल के महारथी होने के साथ देश की सीमाओं की सुरक्षा संबंधी सामरिक महत्व के जानकार थे। इसीलिए कृष्ण पूरब से पश्चिम अर्थात मणीपुर से द्वारका तक साा विस्तार के साथ संरक्षण में भी सफल रहे। मणीपुर की पर्वत श्रृंखलाओं पर और द्वारका के समुद्र तट पर कृष्ण ने सामरिक महत्व के अड्डे तक स्थापित किए जिससे कालांतर में संभावित आक्रांताओं यवन, यूनानियों, हूणों, पठानों, तुर्कों, शकों और मुगलों से लोहा लिया जा सके। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे यही सीमांत प्रदेश आतंकवादी घुसपैठ और हिसंक वारदातों का हिस्सा बने हुए हैं। कृष्ण के इसी प्रभाव के चलते आज भी मणिपुर के मूल निवासी कृष्ण भत हैं। इससे पता चलता है कि कृष्ण की द्वारका से पूर्वोत्तर तक की यात्रा एक सांस्कृतिक यात्रा भी थी। हमें कृष्ण के इस गुर को समझने की नितांत जरूरत है।

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