महिलाओं के शोषण को सिर्फ कानून बना कर नहीं रोका जा सकता

महिलाओं के शोषण को सिर्फ कानून बना कर नहीं रोका जा सकता। इसके लिए जरूरत है कानून के साथ-साथ सामाजिक सुधार और लोगों की मानसिकता में बदलाव लाने की।
महिलाओं के शोषण
महिलाओं के शोषणSocial Media

आधुनिक जीवन शैली व वैज्ञानिक प्रगति से समाज के ढांचे में काफी बदलाव आया है, लेकिन कुछ मामलों में हम आज भी सामंती युग में जी रहे हैं। पूंजीवाद को महिलाओं के अधिकार का अलंबरदार माना जाता है, लेकिन बहुत से मूल्यों के मामलों में एशिया के अलावा बहुत से देशों में पूंजीवाद ही महिलाओं की बेड़ी बन गया है। पूंजीवादी समाज में अस्तित्व में आए आधुनिक साधन महिलाओं को गुलाम बनाने का मूल्य परोस रहे हैं। तेजी से बढ़ते निजीकरण व उदारीकरण के दौर में महिलाओं पर अपराध बढ़े हैं। मूल्य आधारित अपराधों के बढ़ने की वजह मीडिया का महिला-विरोधी मूल्य परोसना है। संचार माध्यमों में महिलाओं को पुरुषों से कमतर दिखाया जाता है। बहुत बार महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को सही घोषित कर दिया जाता है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़े भी यही दर्शाते हैं।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महिलाओं को साथ लेने की जरूरत के चलते 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में नारीवादी चेतना का विकास हुआ। नतीजतन, आजादी के आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, पर दुर्भाग्य से नारीवादी चेतना का विकास आजादी की लड़ाई तक ही सीमित रहा। शिक्षा, विधिक व प्रशासनिक संस्थाओं, परिवहन, संचार प्रणाली, प्रेस में काम करने की आजादी आदि महिलाओं की पहुंच से दूर ही रहे। इसीलिए, महिलाओं ने आजाद भारत में भी नारी मुक्ति आंदोलन को जारी रखा और लैंगिक गैरबराबरी और पितृसात्मक सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देना शुरू किया, जो आज भी जारी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के विगत दिनों जारी आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं पर होने वाले शोषण से जुड़े सामाजिक और व्यतिगत अपराधों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।

रिपोर्ट के अनुसार 2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के तीन लाख 29 हजार 243 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2016 में यह आंकड़ा तीन लाख 38 हजार 954 पर पहुंच गया। 2017 में तीन लाख 59 हजार 849 और 2018 में कुल तीन लाख 78 हजार 277 मामले दर्ज किए गए। महिलाओं के खिलाफ अपराध के दर्ज मामलों में यौन शोषण, हत्या, रेप, दहेज हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाना, एसिड हमले, महिलाओं के खिलाफ क्रूरता और अपहरण आदि शामिल हैं। महिलाओं पर होने वाले अपराध के मामले में उत्तर प्रदेश अव्वल रहा। वहां 59 हजार 445 मामले दर्ज किए गए, जबकि दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र था, जहां 35497 मामले दर्ज हुए। 30 हजार 394 मामलों के साथ पश्चिम बंगाल तीसरे नंबर पर रहा। रिपोर्ट की मानें तो 31.9 प्रतिशत महिलाओं का शोषण उनके पतियों या नजदीकी रिश्तेदारों ने किया।

महिलाओं पर बढ़ते अपराध की बड़ी वजह पुरुषवादी सोच है। लड़कियों को बचपन से सिखाया जाता है कि औरतों को दब कर रहना चाहिए। यह खुद घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलाएं सिखाती हैं। वे खुद पुरुषवादी और गुलामी की सोच से ग्रस्त रहती हैं। वे बच्चियों को सिखाती हैं कि जिनसे उनकी शादी होगी, वह पति परमेश्वर के समान होगा। इसीलिए, औरतें घरेलू हिंसा को छिपाती हैं। वे पति के हिंसक व्यवहार को भी सही ठहराती हैं। महिलाओं को अपनी इच्छा से बच्चा जनने तक की आजादी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग के अनुसार देश में पुरुष और महिला नसबंदी में भारी अंतर है। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार महिला नसंबदी करीब 95 प्रतिशत और पुरुष नसबंदी पांच प्रतिशत है। परिवार नियोजन को लेकर समाज पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त है। सार के दशक में शुरू हुए परिवार नियोजन के सरकारी विज्ञापनों में नारा दिया गया कि दो ही बच्चे सबसे अच्छे, लेकिन इस नारे के पीछे सरकारी सोच दो बच्चे यानी एक लड़का और एक लड़की की थी।

विज्ञापन के लोगो में माता-पिता के साथ दो बच्चे दिखाए गए। एक लड़का और एक लड़की। इसी का परिणाम है कि समाज का बड़ा तबका संपूर्ण परिवार की परिभाषा एक लड़का और एक लड़की से लगाता है। इसे लेकर अनेक तर्क दिए जाते हैं। पुरुषवादी सोच न सिर्फ सरकारी योजनाओं में, बल्कि मुख्याधारा मीडिया में भी जड़ जमाए हुए हैं। पिछले साल फ्रांसीसी मूल की एस्थर डूफ्लो को अभिजीत बनर्जी और माइकल क्रेमर के साथ संयुक्त रूप से अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला। भारतीय मीडिया में एस्थर डूफ्लो का परिचय अभिजीत बनर्जी की पत्नी के रूप में ही दिया। एस्थर, अभिजीत की पत्नी हैं, लेकिन उन्हें यह नोबेल इसलिए नहीं दिया गया कि वे अभिजीत की पत्नी हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने दुनिया भर में गरीबी मिटाने के लिए व्यावहारिक प्रयोग किया है। नोबेल के इतिहास में एस्थर अर्थशास्त्र के लिए यह पुरस्कार पाने वाली दूसरी महिला हैं। उन्होंने सबसे कम उम्र में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार हासिल किया है। एस्थर को विकासात्मक अर्थशास्त्र के लिए दुनिया भर में महत्वपूर्ण माना जाता है, उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में कई अभिनव प्रयोग किए हैं। लेकिन, भारतीय मीडिया ने एस्थर के कामों पर कम ही चर्चा हुई। करीब सारे मीडिया ने परिचय के आगे ‘पत्नी’ लगाना जरूरी समझा।

यही मर्दवादी सोच महिलाओं को कमतर आंकती और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनने पर मजबूर करती है, जो शोषण के बहुरूपों का शिकार होती हैं, फिर वह चाहे उनके स्वास्थ्य का मामला ही क्यों न हो। दुनिया में महिलाओं की मृत्यु का पांचवां सबसे बड़ा कारण माहवारी है। यह एक सामान्य प्राकृतिक शरीरिक चक्र है, उसके बिना जीवन की कल्पना भी असंभव है। मासिक धर्म पर खुलकर बात की जानी चाहिए, लेकिन उसे छिपाने की कोशिश की जाती है। दुनिया की आधी आबादी के जीवन का अभिन्न अंग माहवारी होने के बाजवूद इसे इस कदर छिपाया जाता है कि वह इससे जुड़ी कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त होकर असमय मौत का शिकार हो जाती हैं। शिक्षा विभाग के अनुसार हमारे देश में हर साल करीब 2.3 करोड़ लड़कियां माहवारी शुरू होते ही स्कूल छोड़ देती हैं। स्कूलों में लड़कियों को इस दौरान मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिलती हैं, जिसके चलते वे स्कूल जाना बंद कर देती हैं। असुरक्षित साधनों के प्रयोग की वजह से लड़कियां संक्रमणों से ग्रस्त हो जाती हैं।

महिलाओं के यूरिनरी ट्रैट इंफेक्शन और सर्वाइकल कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी की चपेट में आने की मुख्य वजह माहवारी के समय अनुचित साधनों का उपयोग है। हालत यह है कि पूरे विश्व में साल भर में लगभग आठ लाख महिलाओं की मृत्यु का कारण माहवारी के दौरान उचित साधनों का प्रयोग न करना है। इसी तरह से, महिलाओं की असमय मौत का एक कारण ब्रेस्ट कैंसर भी है। यह एक सामान्य बीमारी है, जिसका पता लगाया जा सकता है। लेकिन, भ्रांतियों और पुराने मूल्यों के कारण महिलाएं ब्रेस्ट से जुड़ी बातचीत या समस्याओं पर कम ध्यान देती हैं। ग्रामीण इलाकों या छोटे शहरों में महिला डॉटरों का अभाव है, जिसकी वजह से वे समस्या सही तरीके से बता भी नहीं पाती हैं।

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