संसद के शीत सत्र से उम्मीदें

संसद का मौजूदा शीत सत्र कई मायनों में महत्वपूर्ण है, अब देखना होगा कि, क्या इस शीत सत्र में सभी दल सदन में देशहित के लिए सार्थक चर्चा करते हैं या नहीं?
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राज एक्सप्रेस। संसद का मौजूदा शीत सत्र कई मायनों में महत्वपूर्ण है। अभी तो गांधी परिवार की एसपीजी सुरक्षा हटाने और फारुक अब्दुल्ला की रिहाई तक ही पूरा सदन सिमटा पड़ा है। कश्मीर और एनआरसी का मुद्दा भी चर्चा बटोर रहा है। मगर देश यह उम्मीद लगाए है कि, सभी दल सदन में सार्थक चर्चा करें और देशहित में काम करें। आगे क्या होगा, यह देखना दिलचस्प है।

नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले सत्र से यह इस मायने में भिन्न है कि, शिवसेना राजग से अलग होकर अब विपक्ष में बैठ रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि संसद के दोनों सदन का अंकगणित बदल गया है। इसका असर निश्चय ही संसद की कार्यवाही व विधेयकों के पारित होने की स्थिति पर पड़ेगा। सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दलों ने कई बातें रखीं जिनमें आर्थिक स्थिति पर चर्चा की मांग प्रमुख है। आर्थिक सुस्ती को लेकर यदि राजनीतिक दल गंभीर हुए तो इस पर परिणामकारी बहस हो सकती है। सरकार इस संबंध में उठाए गए कदमों व भविष्य की योजनाओं की रुपरेखा अगर रखती है तो, उससे एक साथ कारोबारियों, निवेशकों, किसानों एवं कामगारों सबको कुछ न कुछ संकेत मिलेगा। इस पर राजनीति से परे गंभीर बहस जरूरी है। देश के सामने सच्चाई आनी चाहिए कि, हमारी अर्थव्यवस्था में सुस्ती के कारण क्या हैं? वैसे तो विपक्ष ने संसद की कार्यवाही में सहयोग करने का बयान दिया है लेकिन इसके साथ उसकी कुछ मांगें भी हैं। ये मांगे वास्तव में शर्ते हैं।

कुल मिलाकर राजनीति के चरित्र को देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि, अर्थव्यवस्था पर सार्थक चर्चा हो सकेगी। अभी तो गांधी परिवार की एसपीजी सुरक्षा हटाने और फारुक अब्दुल्ला की रिहाई तक ही पूरा सदन सिमटा पड़ा है। कश्मीर और एनआरसी का मुद्दा भी चर्चा बटोर रहा है। सरकार ने सत्र के लिए अपनी कार्यसूची में नागरिकता (संशोधन) विधेयक को सामने रखा है। सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस विधेयक को संसद में पेश किया था, लेकिन विपक्ष के विरोध के कारण यह पारित नहीं हो सका था। पिछली लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद यह विधेयक भी खत्म हो गया था। इस विधेयक में बांग्लादेश, पाक और अफगानिस्तान से धार्मिक उत्पीड़न के चलते भागकर भारत आने वाले हिंदू, जैन, सिख, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है।

पिछली सरकार ने जब यह विधेयक पेश किया था, तब असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों में भारी विरोध हुआ था। हालांकि उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर में भाजपा को एकतरफा विजय मिली थी। सरकार का तर्क है कि, जो देश हमसे टूटकर बने हैं वहां यदि हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई उत्पीड़ित होते हैं तो वे भागकर भारत ही शरण के लिए आ सकते हैं इसलिए मानवता के आधार पर हमें उन्हें भारत की नागरिता देनी चाहिए। यह एक संवेदनशील मुद्दा है और इसी रूप में इस पर विचार होना चाहिए। निश्चय ही इस पर हंगामेदार बहस होगी। जो स्थिति पूर्व में थी उसमें बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा नहीं है। इस विधेयक के बारे में अनेक गलतफहमियां पैदा की गई हैं जिनका असर भी है। वास्तव में राजनीतिक दलों के बीच मतभेद को देखते हुए इसको पारित कराना आसान नही होगा। शिवसेना राजग से अलग होने के बाद इस पर क्या रुख अपनाती है यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा।

इस संसद के पहले सत्र ने काफी उम्मीदें पैदा की थीं। उस दौरान कुल 40 विधेयक (लोकसभा में 33 और राज्यसभा में 07) पेश किए गए। लोकसभा द्वारा 35 विधेयक व राज्य सभा द्वारा 32 विधेयक पारित किए गए। दोनों सदनों ने 30 विधेयकों को पारित कर दिया। लोकसभा की उत्पादकता लगभग 137 प्रतिशत और राज्यसभा की लगभग 103 प्रतिशत रही। यह किसी भी संसद के प्रथम सत्र की सबसे ज्यादा उत्पादकता थी। कुछ ऐसे विधेयक थे जिनके पारित होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण संविधान के अनुच्छेद 370 के कुछ प्रावधानों और उसके आधार पर जारी राष्ट्रपति के आदेशों को समाप्त करना था। जम्मू कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों-जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख में बांटकर जम्मू-कश्मीर राज्य का पुनर्गठन किया गया। यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण विधेयक, 2019 पारित किया गया। यह पोर्नोग्राफी में बच्चे के चित्रण को अपराध घोषित करने के अलावा बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों के लिए ज्यादा कठोर सजा का प्रावधान करता है, जो बीस साल तक या कुछ मामलों में शेष जीवन के लिए कारावास तक बढ़ाई जा सकती है। लंबे समय से तीन तलाक/तलाक-ए-बिद्दत रद्द घोषित करने वाला मुस्लिम महिला विधेयक, 2019 का पारित किया जाना भी अकल्पनीय था।

इस पृष्ठभूमि में तो नाउम्मीदी का सामान्यत: कारण नहीं होना चाहिए। किंतु इस बार स्थितियां बदली हुई हैं। लोकसभा चुनाव के विपरीत दो विधानसभा चुनावों में भाजपा को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली है। इसका असर पूरे विपक्ष पर है। सरकार ने विधेयकों की जो सूची जारी की है उसमें 27 नए हैं। लोकसभा में दो तथा राज्यसभा में 10 लंबित विधेयकों पर विचार-विमर्श कर पारित किया जाना है। इसके साथ राज्यसभा में सात विधेयकों को वापस लिया जाना है। माना जा रहा था कि दिल्ली में 1,728 अवैध कालोनियों को नियमित करने संबंधी विधेयक इस सत्र में आएगा, लेकिन यह सूची में शामिल नहीं है। आम आदमी पार्टी ने इसे मुद्दा बनाया है। हो सकता है सत्र के बीच इसे तैयार कर पेश किया जाए। इसके अलावा ड्यूटी के दौरान डॉक्टरों पर हमला करने वालों पर जुर्माना लगाने, कॉर्पोरेट कर दरों में कटौती और ई-सिगरेट पर पाबंदी संबंधी दो अधिसूचनाओं को कानून में बदलने संबंधी विधेयक किया जाना है।

विधेयकों और राजनीतिक स्थिति को देखते हुए यह सरकार एवं विपक्ष दोनों के लिए परीक्षा का सत्र भी माना जाएगा। परीक्षा इस मायने में कि, पिछले सत्र में केंद्र सरकार ने विपक्ष को किसी तरह मिलाकर विधेयकों के मामले में सफलताएं पाई थीं। क्या इस सत्र में ऐसा हो सकेगा? विपक्ष की परीक्षा इस मायने में कि वह केवल सरकार के विरोध तक अपने को सीमित रखता है या अपने अनुसार जहां संभव है विधेयकों में संशोधन कराकर पारित कराने का विवेक प्रदर्शित करता है। राफेल मामले पर सरकार को उच्चतम न्यायालय से सौदे के सही होने का प्रमाण पत्र मिल चुका है। जिस तरह कांग्रेस एवं राहुल गांधी के खिलाफ भाजपा के तेवर हैं उन्हें देखते हुए साफ लगता है कि, यह विषय संसद मे मोर्चाबंदी का कारण बनेगा। चूंकि भाजपा राहुल गांधी से माफी की मांग कर रही है इसलिए कांग्रेस झुकने की जगह आक्रामक तेवर अपनाए हुए है। इनके बीच संसद की कार्यवाही को सुचारू रूप से चला पाना आसान नहीं होगा।

हालांकि सभी राजनीतिक दलों को समझना चाहिए, कि संसद बहस करने और कानून बनाने के लिए है। संसद को उसकी सही भूमिका में बनाए रखने की जिम्मेदारी सभी दलों की है। दल राजनीति करें, लेकिन संसद 'संसद' ही रहे यह सड़क में परिणत न हो। लेकिन भारतीय राजनीति किसी समय कोई मोड़ लेती है और संसद का सत्र उसका शिकार होती रही है। हम कामना करेंगे कि ऐसा न हो एवं यह सत्र भी अपने विधायी कार्यो और शानदार चर्चाओं के लिए याद किया जाए।

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