देश में डिजिटल क्रांति के साथ ई-कचरे (Electronic waste) की समस्या भी बढ़ी

दुखद तो यह है कि खराब बुनियादी ढांचे और कानूनों के चलते भारत के कुल ई-कचरे के केवल पांच फीसद हिस्से का पुनर्चक्रण हो पाता है।
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ई-कचरे का 95 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र और इस बाजार में कबाडिय़ों के हाथों में चला जाता है जो इसे गलाने के बजाय तोड़ कर फेंक देते हैं। बेहतर प्रबंधन से ई-कचरे का नवीनीकरण या सुरक्षित निपटान किया जा सकता है। इसके लिए ई-कचरे में कमी लाना जरूरी है।

देश में डिजिटल क्रांति के साथ-साथ ई-कचरे की समस्या भी बढ़ी है और आज यह विकराल रूप धारण कर चुकी है। ई-कचरे को नष्ट करने के उपाय समझ नहीं आ रहे। आज का युग प्रौद्योगिकी का है। इसमें इलेट्रॉनिक कचरे का बढ़ते जाना निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है। नवाचारों के कारण इलेट्रॉनिक उद्योग फलफूल रहे हैं। इलेट्रॉनिक वस्तुओं का उपयोग और साथ ही इलेट्रॉनिक वस्तुओं के नित नए रूप लोगों को इस ओर आकर्षित करते हैं कि वे अधिक से अधिक इलेट्रॉनिक वस्तुओं का उपयोग करें और पुरानी वस्तुओं का त्याग करें। इसी कारण स्थिति बन चुकी है कि भारत इलेट्रॉनिक कचरा घर बन गया है। लेकिन चुनौती इस बात की है कि इसे नष्ट कैसे किया जाए, कैसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने के उपाय खोजे जाएं।

ई-कचरे में टीवी, फ्रिज, एसी, कंप्यूटर मॉनिटर, कंप्यूटर से जुड़े दूसरे हिस्से व पुर्जे, कैलकुलेटर, मोबाइल, इलेट्रॉनिक मशीनों के कलपुर्जे शामिल होते हैं। ई-कचरा हानिकारक इसलिए है कि इलेट्रॉनिक सामान बनाने में जो रसायन और पदार्थ इस्तेमाल होते हैं, वे काफी हानिकारक होते हैं। इलेट्रॉनिक कचरे से तांबा, चांदी, सोना, प्लैटिनम आदि कुछ मूल्यवान धातुएं प्राप्त करने के लिए इन्हें प्रसंस्कृत करना होता है, जो जटिल काम है। यह पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है। कुछ इलेट्रॉनिक उपकरण और बिजली का सामान सीसा, जस्ता, कैडमियम, बेरियम जैसी धातुओं से बनाए जाते हैं और जब ये हानिकारक तत्व पानी में मिल जाते हैं तो उसे जहरीला कर देते हैं। एसोचैम के एक अध्ययन में कहा गया है कि असुरक्षित ई-कचरे के पुनर्चक्रण (फिर से किसी उपयोग के लायक बनाने) के दौरान उत्सर्जित रसायनों/ प्रदूषकों के संपर्क में आने से तंत्रिका तंत्र, रत प्रणाली, गुर्दे व मस्तिष्क विकार, सांस संबंधी बीमारियां, त्वचा विकार, गले में सूजन, फेफड़ों का कैंसर और हृदय संबंधी रोग तेजी से हमला करते हैं।

मोबाइल फोन में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे तो लंबे समय तक नष्ट ही नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी छह लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। जल-जमीन यानी हमारे वातावरण में मौजूद ये खतरनाक रसायन कैंसर आदि कई गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मोबाइल उपभोक्ता देश है। यहां 15 लाख टन से भी ज्यादा ई-कचरा तैयार होता है। लेकिन उचित निपटान अथवा प्रबंधन गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है। वर्ष 2011 में ई-कचरा प्रबंधन के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। तब यह तय हुआ था कि जो भी उत्पाद तैयार होंगे, उनके लिए राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से मंजूरी लेनी होगी और वे पर्यावरण के अनुकूल हों। इसके बाद ई-कचरा प्रबंधन नियम 2016 बनाया गया, जिसे 2017 में लागू किया गया। इसमें ई-कचरे के प्रबंधन को दुरुस्त किया गया। साथ ही ‘उत्पाद उत्तरदायित्व संगठन’ के नाम से व्यवस्था भी बनाई गई। इसके अलावा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यह निरीक्षण करेगा कि बाजार में ऐसे कौन से उपकरण या उत्पाद उपलब्ध हैं, जिनका निस्तारण संभव नहीं है और जो पर्यावरण के लिए खतरनाक हैं।

ऐसी सभी वस्तुओं का पता लगा कर बाजार से उनकी वापसी की जाएगी। कचरे की वैश्विक मात्रा साल 2016 में 4.47 करोड़ टन थी, जो 2021 तक साढ़े पांच करोड़ टन तक पहुंच जाने की संभावना है। भारत में बीस लाख टन सालाना ई-कचरा पैदा होता है। दुनिया में सबसे ज्यादा इलेट्रॉनिक कचरा पैदा करने वाले शीर्ष पांच देशों में भारत का नाम भी शुमार है। इसके अलावा इस सूची में चीन, अमेरिका, जापान और जर्मनी भी हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब बीस लाख टन सालाना ई-कचरा पैदा होता है और चार लाख 38 हजार 85 टन कचरे का हर साल पुनर्चक्रण किया जाता है। ई-कचरे में आमतौर पर फेंके हुए कंप्यूटर मॉनीटर, मदरबोर्ड, कैथोड-रे-ट्यूब (सीआरटी), प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी), मोबाइल फोन और चार्जर, कॉम्पैक्ट डिस्क, हेडफोन के साथ एलसीडी (लिविड क्रिस्टल डिस्प्ले) या प्लाज्मा टीवी, एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर शामिल हैं।

दुखद तो यह है कि खराब बुनियादी ढांचे और कानूनों के चलते भारत के कुल ई-कचरे के केवल पांच फीसद हिस्से का ही पुनर्चक्रण हो पता है। जबकि ई-कचरे का 95 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र और इस बाजार में कबाडिय़ों के हाथों में चला जाता है जो इसे गलाने के बजाय तोड़ कर फेंक देते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जैसे-जैसे भारत के लोग अमीर बनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे और ज्यादा इलेट्रॉनिक सामान और उपकरण खरीदने पर खर्च करते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक कुल ई-कचरे में कंप्यूटर उपकरण 70 फीसद, मोबाइल और इससे जुड़े उपकरण बारह फीसद, बिजली के उपकरण आठ फीसद, चिकित्सा उपकरण सात फीसद और बाकी घरेलू सामान का योगदान चार फीसद है। इस वक्त भारत में ई-कचरे पैदा होने की दर, उसे पुनर्चक्रित करने की क्षमता से 4.56 गुना अधिक है। बढ़ते हुए ई-कचरे का बड़ा कारण अधिक से अधिक लोगों द्वारा प्लास्टिक का उपयोग करना है।

भारत में ई-कचरा जिस दर से बढ़ रहा है और उससे देश के पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है, आने वाले वक्त में उसके घातक परिणाम देखने को मिलेंगे। संयुत राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि भारत और चीन जैसे देशों ने ई-कचरे के पुनर्चक्रण में तेजी नहीं दिखाई और अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया, तो जगह-जगह ई-कचरे के पहाड़ खड़े नजर आएंगे। आज भारत में एक लाख टन रेफ्रिजरेटर का कचरा, पौने तीन लाख टन टीवी का कचरा, 56 हजार टन से ज्यादा कंप्यूटरों का कचरा, चार हजार सात सौ टन प्रिंटरों का कचरा और एक हजार सात सौ टन मोबाइल फोन का कचरा प्रति वर्ष तैयार होता है। भारत में कचरे के रिसाइलिंग की कोई सटीक प्रणाली लागू नहीं की गई है। अधिकतर ई-कचरा अनियोजित तरीके से एकत्र और नष्ट किया जाता है और यह कार्य स्थानीय कबाड़ी करते हैं। पुनर्चक्रण के लिए सुनियोजित कारखाने नहीं लगाए गए हैं। कबाड़ी ई-कचरे में से बहुमूल्य धातुएं प्राप्त कर लेते हैं।

भारत को ई-कचरे की समस्या के स्थायी समाधान के लिए यूरोपीय देशों में प्रचलित व्यवस्था की तर्ज पर पुर्नचक्रण व विधि प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए, जहां इलेट्रॉनिक उत्पाद तैयार करने वाली कंपनियों को ही इन उत्पादों को उनके इस्तेमाल के बाद पुर्नचक्रण के लिए जवाबदेह बनाया जाता है। या तो कंपनियां इन उत्पादों को स्वयं पुनर्चक्रित करती हैं या फिर इस कार्य को किसी तीसरे पक्ष को सौंप देती हैं। कई देशों में इस सवाल का जवाब इस व्यवस्था को बदल कर दिया गया है, कचरे से संबंधित शुल्क का भुगतान इसे एकत्र करने या लाने-ले जाने के लिए नहीं किया जाता।

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