अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस - महिलाएं आज भी अपने वजूद के लिए कर रही हैं संघर्ष

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। देश का माहौल महिलाओं के अनुकूल उतना नहीं हो पाया है, जितना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में होना चाहिए था। इसके बावजूद महिलाएं तरक्की कर रही हैं
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हमारी भारतीय संस्कृति में जो कुछ शुभ है, सुंदर है, कल्याणकारी है, मंगलकारी है, उसकी कल्पना नारी रूप में की गई है। यह विचार और इसका भाव सुखद तो है पर समय के साथ असुरक्षा, अपमान व हर स्तर पर दोयम दर्जे का व्यवहार ही महिलाओं के हिस्से आया है। ऐसे में आज के दौर में इस विचार की सार्थकता तभी है, जब घर और बाहर दोनों ही जगह अस्मिता का मान और समानता का व्यवहार महिलाओं के हिस्से में आए। स्त्रियों को ऐसा सामाजिक-पारिवारिक परिवेश मिले, जिसमें वे बिना किसी भय के ऊंची उड़ान भर सकें। हालांकि, ऐसे अनगिनत विरोधाभासों से जूझते हुए बीते कुछ बरसों में भारतीय महिलाओं ने हर क्षेत्र में आगे बढऩे और सशक्त बनने के मोर्चे पर साबित किया है कि वे स्वयंसिद्धा हैं। नतीजतन महिलाओं की भूमिका अब और महत्वपूर्ण हो चली है। वे समाज में नवसृजन-नवनिर्माण कर रही हैं। समाज को समर्पित एक व्यक्तित्व का जीवन जीते हुए भी खुद को साबित कर रही हैं। यही वजह है कि महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ी तमाम चिंताओं के बावजूद व्यावहारिक सोच और बदलाव की एक नई बयार देखने को मिल रही है। यह सच है कि बदलाव की यह रफ़्तार थोड़ी कम है पर इस बात को कम नहीं आंका जा सकता कि महिलाओं के कदम बेहतर दुनिया बनाने की ओर ही बढ़ रहे हैं। बस, जरूरत है तो इस बात है की कि समाज और परिवार भी उन्हें सशक्त बनाने का मजबूत आधार बनें।

दरअसल, भारत में जिस तरह का सामाजिक-पारंपरिक ढांचा है, केवल सरकारी योजनाएं और कानून महिलाओं को सशक्त नहीं बना सकते। महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा के मोर्चे समाज की ही नहीं उनके अपनों की सोच में भी बदलाव की दरकार है। यह बदलाव बेहद जरूरी भी है क्योंकि महिलाओं के उत्थान और सशक्त होने का हर कदम परिवार और समाज की बेहतरी के लिए ही होता है। इतना ही नहीं देश के विकास के लिए भी हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढऩा जरूरी है। प्रगतिशील कहे जाने वाले देश में सबसे ज्यादा बदलाव की दरकार समाज में मौजूद परंपराओं और रूढिय़ों की जकडऩ को लेकर है, जहां घरेलू हिंसा, दहेज, भ्रूण हत्या और बाल विवाह जैसे दंश बेटियों के जीवन के दुश्मन बन गए हैं। अब हर उम्र की महिला असुरक्षा के साये में जी रही है। बेटे और बेटी में किए जाने वाले भेद की मानसिकता के चलते आज भी दूर-दराज के गांवों में बेटियों की शिक्षा और स्वास्थ्य को महत्व नहीं दिया जाता। आज भी हमारे परिवारों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को व्यवस्थागत समर्थन मिलता है। गौरतलब है कि तमाम सरकारी अभियानों व सामाजिक जागरूकता लाने वाले प्रयासों के बावजूद घर और बाहर दोनों ही जगह महिलाओं के साथ होने वाली खौफनाक घटनाओं का होना जारी है। ऐसे में महिलाएं सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी पायें, इसके लिए भीतर और बाहर हर जगह सोच में सकारात्मक बदलाव जरूरी है। उनके प्रति संवेदनशील व्यवहार किया जाना आवश्यक है।

सदियों से दोयम दर्जे की नागरिक समझी जाने वाली स्त्रियां आज मुखर हैं। वे अपनी नई पहचान बनाने में जुटी हैं। उनकी यह सशक्त और सजग छवि आत्मविश्वासी सोच लिए है। यही वजह है कि आज की महिलाएं सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक मंचों पर अपना स्थान पुख्ता कर रही हैं। यह स्त्रीमन का हौसला ही है कि मजबूत इरादों से साल दर साल उनकी उपलब्धियां बढ़ रही हैं। ऐसे में समाज,परिवार और प्रशासन को यह समझना होगा कि अपनी हिम्मत और मेहनत के बल पर आगे बढ़ रही देश की आधी आबादी को सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर सुरक्षा और सम्मान मिले। ऐसा होने पर उनकी कामयाबी की यह प्रक्रिया न केवल तेज हो सकती है बल्कि महिलाओं के लिए यह सफर सुखद और सुरक्षित भी हो सकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि बदलते भारत और इस बदलाव में महिलाओं की भूमिका को अहम् मानते हुए समाज, प्रशासन और परिवार सभी उनके मान-सम्मान और सुरक्षा के मायने समझें। यकीनन, आज ऐसा परिवेश बनाने पर बल दिए जाने की जरूरत है, जिसमें महिलाएं भय की नहीं अधिकार की भी बात कर पाएं। शिक्षा, सुरक्षा और समान से जुड़ा हर वो अधिकार उनके हिस्से आए जो इस देश की नागरिक होने के नाते उन्हें हमारे संविधान ने दिया है।

हमारे यहां महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने के लिए जितनी योजनाएं हैं उतना ही स्त्री विमर्श भी होता है, लेकिन महिलाएं आज भी अपने वजूद से जुड़े हर पहलू पर संघर्ष करती नजर आती हैं। हर क्षेत्र में अपनी काबिलियत के बल पहचान बनाकर आगे बढ़ती बेटियां आज भी अपने ही अस्तित्व के लिए जूझती नजर आ रही हैं। जाने कैसी विडंबना है कि जीवन के हर मोर्चे पर खुद को साबित करने के बावजूद इस देश में बेटियों की यह जंग उनके जन्म लेने से पहले ही शुरू हो जाती है। नि:संदेह ऐसे मुद्दों को लेकर कठोर कानून या फिर सरकार की जन-जागरूकता लाने वाली कोशिशें भर काम नहीं कर सकतीं। अब पूरे परिवेश को स्त्री जीवन के लिए दंश बन चुकी इन समस्याओं से लडऩा होगा। समाज और परिवार को महिलाओं को दोष देने के बजाय उनका संबल बनने की सोच अपनानी होगी। महिलाओं के खिलाफ होने वाले आपराधिक मामलों में अक्सर देखने में आता है कि इन दुखद घटनाओं के बाद अस्मिता और सामाजिक सम्मान से जुड़े सरोकार के संघर्ष में वे आज भी खुद को अकेले पाती हैं। ऐसे मामलों में समाज, परिवार और सरकार की जो सहभागिता होनी चाहिए वो नहीं दिखती। इसमें कोई दो राय नहीं सामाजिक कुरीतियां हों, घर-दफ्तर में उनके साथ होने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार हो या दुष्कर्म और छेड़छाड़ जैसी कुत्सित घटनाएं। महिलाओं पर दोषारोपण करने वाली सामाजिक सोच और परिवारजनों द्वारा भी साथ न देने वाले माहौल के चलते महिला अस्मिता को ठेस पहुंचाने वाले मामले भी बढ़ रहे हैं और कुत्सित सोच वाले लोगों की हिम्मत बढ़ रही है।

यह एक कटु सच है कि महिलाओं के प्रति भेदभाव और शोषण के बुनियादी कारण हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में ही मौजूद हैं। जिनका हल आर्थिक आत्मनिर्भरता व प्रशासनिक कार्य योजनाओं के जरिए नहीं ढूंढा जा सकता है। इसीलिए महिला सशक्तिकरण कुछ मिटाने या बनाने का नहीं बल्कि अस्मिता और सामाजिक सरोकार का संघर्ष है, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जीने की लड़ाई है। यही कारण है कि हर कदम पर खुद को साबित कर रही महिलाओं के प्रति परिवेश और परिजनों की सोच और व्यवहार में बदलाव आए बिना उनकी हर कामयाबी अधूरी है। आधी आबादी को घर के भीतर और बाहर कुछ ऐसे बदलावों का इंतजार है जो उनकी अस्मिता पर आंच न आने दे। यकीनन, इस बदलाव का आधार सामाजिक, पारिवारिक स्तर पर विचार और व्यवहार में सकारात्मक सोच लाने से ही संभव है। आज भी परिवारों और समाज में महिलाओं के प्रति दोगलापन ही ज्यादा दिखता है। इसीलिए वैचारिक बदलाव जब तक हमारे व्यवहार का हिस्सा नहीं बनेंगे, महिला सशक्तिकरण का नारा बस खेल ही बन कर रह जाएगा। योजनाओं और कानूनों से परे स्त्रियों के प्रति मौजूद विरोधाभासी और प्रतिकूल सोच से निपटने का सबसे पहला रास्ता घर से ही खुलता है। साथ ही आधी आबादी के लिए इस राह के सफर को सहज बनाने में समाज की भूमिका भी अहम् है।

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