क्यों देश छोड़ रहे दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेटर्स?

पूर्व पेस बॉलर मोर्ने मोर्केल भी कोलपैक डील से प्रभावित हो चुके हैं। उन्होंने 2018 में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास लेकर इंग्लिश काउंटी टीम सरे से खेलने का निर्णय लेकर फैंस को चौंका दिया था।
South Africa Cricketers
South Africa CricketersKavita Singh Rathore -RE

हाइलाइट्स :

  • जानें कोलपैक डील के बारे में

  • प्रतिभाशाली क्रिकेटर्स का पलायन क्यों?

  • अश्वेत खिलाड़ियों के बारे में क्या हैं नियम?

  • इंग्लैंड-न्यूजीलैंड बन रहा प्रोटीज़ का ठिकाना!

राज एक्सप्रेस। CSA यानी क्रिकेट साउथ अफ्रीका में क्रिकेट खेल की बेहतरी के लिए लिया गया निर्णय खिलाड़ियों के भविष्य के लिहाज़ से नासूर बनता जा रहा है। आलम यह है कि एक-एक कर के नामी खिलाड़ी अंतर राष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास लेकर विदेश में करियर बनाने पहुंच रहे हैं।

रिपन ने बताए अनुभव :

शुरुआत करते हैं माइकल रिपन से जिनको ससेक्स से खेलने का मौका मिला, उन्होंने नीदरलैंड्स का भी प्रतिनिधित्व किया और न्यूज़ीलैंड में घरेलू टीम ओटागो वॉल्ट्स के साथ भी समय गुजारा। रिपन का मानना है दक्षिण अफ्रीका की बजाए इन देशों में खेलने से उनका काफी विकास हुआ उन्होंने केप टाउन से होव और फिर एम्स्टर्डम में से डुनेडिन तक की यात्रा को अनुभवी यात्रा बताया।

"उनका कहना है मेरे दिमाग में, यात्रा अभी शुरू हुई है। मुझे अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।"

माइकल रिपन

सुधरा रिकॉर्ड :

बाएं हाथ के कलाई के स्पिनर ऑल राउंडर ने क्रिकेट में करियर बनाने दुनिया के कई देशों की खाक छानी है। मौके की तलाश में जहां भी संभावना थी रिपन ने अवसर तलाशे यह साबित करने कि वो क्या कर सकते हैं। उनके मुताबिक उनका करियर रिकॉर्ड काफी बेहतर हो रहा है। हालांकि उनका मानना है कि यह एक खानाबदोश तरीका है, लेकिन इससे उनका जीवन और क्रिकेट अनुभव दोनों ही समृद्ध हो रहा है।

प्रवास नया ट्रैंड :

दुनिया भर के क्रिकेटर्स का दूसरे देशों में बढ़ता प्रवास कई मायनों में पिछले दशक के प्रमुख ट्रैंड्स में से एक कहा जा सकता है। अधिक से अधिक टी 20 लीग के आयोजन के साथ ही एसोसिएट्स के बढ़ने और गिरने की संभावनाओं के कारण भी यह ट्रैंड प्रचलन में आ रहा है। हालांकि रिपन के प्रवासी विकल्प के कारण भी वो चर्चाओं में हैं। दक्षिण अफ्रीका में जन्मे रिपन उन दर्जनों क्रिकेटर्स में से एक हैं जिन्होंने बेहतर करियर की आस में कोलपैक डील या फिर पैतृक पासपोर्ट के जरिए देश की सीमा लांघी।

क्‍या है कोलपैक डील?

दरअसल कोलपैक डील का वास्ता हैंडबॉल खेल से जुड़ा है। साल 2003 में यह शब्द तब चलन में आया था जब स्लोवाकिया के हैंडबॉल प्लेयर मारो कोलपैक को जर्मन के क्‍लब ने यह कहकर रिलीज़ कर दिया था कि, नॉन यूरोपियन खिलाड़ी कोटा सीमा के चलते यह निर्णय लिया गया। जब कोलपैक ने अदालत में शरण ली तो यूरोपियन कोर्ट ने कोलपैक के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने तब माना था कि अगर खिलाड़ी अपने देश के लिए खेलने का अधिकार छोड़ दें तो वो कोलपैक डील के अंतर्गत यूरोप में खेलने की पात्रता रखता है। इस करार में खिलाड़ी के पास खेलने के लिए वर्किंग वीज़ा होना अनिवार्य किया गया है।

साउथ अफ्रीका को नुकसान :

गौरतलब है कि साउथ अफ्रीका की करेंसी की कीमत इंग्लैंड की तुलना में कम हैं। ऐसे में दक्षिण अफ्रीका बोर्ड इंग्लैंड की काउंटी की तुलना में खिलाड़ियों को कम भुगतान कर पाता है। इस वजह से भी सुरक्षित भविष्य के लिए इस देश के खिलाड़ी इंग्लैंड की काउंटीज़ का रुख करना ज्यादा पसंद करते हैं।

मोर्कल हुए थे शिकार :

दक्षिण अफ्रीकी टीम के पूर्व पेस बॉलर मोर्ने मोर्केल भी इस कोलपैक डील से प्रभावित हो चुके हैं। उन्होंने वर्ष 2018 में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास लेकर इंग्लिश काउंटी टीम सरे से खेलने का निर्णय लेकर क्रिकेट फैंस को चौंका दिया था। इसी तरह काइल एबॉट, रिले रोसौव भी दक्षिण अफ्रीका की बजाए हैम्पशायर से खेलने गए थे।

बढ़ रही संख्या :

इंग्लैंड में 18 प्रथम श्रेणी काउंटीज़ में खेलने वाले दक्षिण अफ्रीकी मूल के खिलाड़ियों की संख्या पिछले दशक में एक तिहाई बढ़ी है। साल 2000 के दशक में इन क्रिकेटर्स की संख्या 91 थी जबकि पिछले दशक में 122 क्रिकेटर्स ने चाहे वह कोलपैक हो या पैतृक पासपोर्ट के माध्यम से काउंटीज़ का रुख किया।

न्यूजीलैंड भी पसंद :

हालांकि दक्षिण अफ्रीका से पलायन का एक कम चर्चित पहलू न्यूजीलैंड जाने वाले खिलाड़ियों की संख्या भी है। यह लगभग तीन गुना कही जा सकती है। न्यूजीलैंड के छोटे घरेलू क्रिकेट सेटअप में साल 2000 में 16 के मुकाबले 2010 में 46 खिलाड़ियों ने न्यूजीलैंड के घरेलू क्रिकेट में खेलना ठीक समझा है। दक्षिण अफ्रीका छोड़ने वाले अधिकांश क्रिकेटर्स श्वेत मूल के हैं।

धन-धना-धन :

दक्षिण अफ्रीका छोड़ने वाले खिलाड़ियों के अपने-अपने निजी कारण हैं। लेकिन पिछले दस सालों जो दो मुख्य खास वजह निकलकर आईं हैं वो हैं, अधिक अवसर और अधिक धन की संभावना।

युवा बोवेस :

दक्षिण अफ्रीका की अंडर 19 टीम के पूर्व कप्तान रहे चाड बोवेस ने न्यूजीलैंड में कैंटरबरी के लिए खेलने की मंशा जताई है। बेहतर मौकों की तलाश में दक्षिण अफ्रीका छोड़ने वालों में डर्बन में पले चाड भी एक हैं, जिन्होंने कभी 2012 के अंडर 19 वर्ल्ड कप में क्विंटन डी कॉक के संग ओपनिंग करते हुए 47 के औसत से रन बटोरे थे।

अश्वेतों को प्राथमिकता :

श्वेत वर्णी बोवेस ने क्वाज़ुलु-नटाल के साथ अपने प्रथम श्रेणी के करियर की शुरुआत की, तो उनको लगा कि उनकी तरक्की प्रभावित हो रही है। हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि उनका फॉर्म में स्थिरता की कमी थी। उनका मानना ​​है कि आंशिक रूप से यह सीएसए की उस प्रणाली का नतीजा है जिसमें रंग रूप के आधार पर प्रत्येक प्रांतीय टीम में खिलाड़ियों की संख्या निर्धारण की बाध्यता है। इसके परिणाम स्वरूप घरेलू क्रिकेट टीमों की अंतिम ग्यारह टीम में पांच श्वेत खिलाड़ियों का कोटा तय किया गया है। बोवेस ने इसे निराशाजनक बताया है। उनका कहना है कि उनको ज्यादा अवसर चाहिए न कि कम। बोवेस कहते हैं,

"नई प्रणाली दलदल में फंसे बड़े पहिये की माफिक है। "यह खिलाड़ियों को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूप से प्रभावित करती है। मैं उस प्रणाली में पला-बढ़ा और यह सब मुझे पता था। जब मैंने यूके में क्लब क्रिकेट खेलना शुरू किया तब मुझे इस सच्चाई का भी भान हुआ कि दुनिया में जीवन कैसे काम करता है।”

श्वेत वर्णी बोवेस

यह है व्यवस्था :

बकौल बोवेस निराशा के दौर में एक समय उन्होंने क्रिकेट छोड़ने तक का निर्णय ले लिया था। दक्षिण अफ्रीका में घरेलू क्रिकेट के दो स्तर हैं, जिनमें 13 प्रांतों की छह फ्रेंचाइजी के बीच मुकाबले होते हैं। रंग वर्ण के आधार पर ऐसे में श्वेत खिलाड़ियों के लिए 95 स्थान रिक्त रह जाते हैं। जो कि काफी कम हैं।

बोवेस की मानें तो उनकी अपेक्षाओं के कारण उनके मित्र और परिवार के लोग, उनसे दूरी बना रहे थे। वो बताते हैं कि संघर्षों से उनका निजी जीवन प्रभावित हो रहा था। "एक अजीब वातावरण था जिसे मैं अपने जीवन में घुसपैठ करने की अनुमति दे रहा था।" वे कहते हैं। "मैं ऐसा नहीं कर सकता जहां मुझे लगा जैसे मैं ईंट की एक दीवार से टकरा रहा था और जब मैं सिस्टम को नहीं बदल सका, मैंने इसे छोड़ने का विकल्प चुना।"

यदि अफ्रीका नहीं फिर कहां? तार्किक सवाल उठता है कि दक्षिण अफ्रीका नहीं तो फिर क्रिकेट का करियर कहां बनाया जाए।

हारून लोर्गट का कार्यकाल :

साल 2013 में जैसे ही हारून लोर्गट ने सीएसए सीईओ का कामकाज संभाला, उन्होंने परिवर्तन पर अधिक जोर दिया। लोर्गट 2013 से 2017 के दौरान पद पर रहे। उनके मुताबिक करीब 20 से अधिक वर्षों के बाद, खेल में वह प्रगति नहीं हुई जो महसूस की जा रही थी। वे कहते हैं, "पिछले एक-दो दशकों में यह सबूत था कि बहुत कम हासिल किया गया था, क्योंकि अश्वेतों और विशेष रूप से अफ्रीकी अश्वेतों को अच्छे अवसर नहीं दिए जा रहे थे।"

पर नहीं बनी बात :

प्रांतीय कोचों और चयनकर्ताओं के विवेक पर परिवर्तन को लागू करने की जिम्मेदारी छोड़ने से भी बात नहीं बनी। साल 2004 और 2007 के बीच चयनकर्ताओं के क्रिकेट दक्षिण अफ्रीका के अध्यक्ष के रूप में लोर्गट को इन तर्कों के लिए याद किया जाता है। लोर्गट के मुताबिक "हमें टीम में अश्वेत खिलाड़ियों को शामिल करना था, क्योंकि लोग आसानी से विश्वास नहीं करते थे कि वे ऐसा कर सकते हैं।"

इतने खिलाड़ियों की अनिवार्यता :

जब लोर्गट मुख्य कार्यकारी बन गए, तो 2013/14 सीज़न के लिए घरेलू क्रिकेट में लक्ष्यों का विस्तार किया गया, जिसमें आवश्यक था कि फ्रेंचाइजी टीमों में रंग के आधार पर चार खिलाड़ियों में से कम से कम एक को अश्वेत अफ्रीकी होना जरूरी रहेगा। अगले सीज़न में अश्वेत खिलाड़ियों का कोटा बढ़ाकर पांच कर दिया गया जिसमें दो ब्लैक अफ्रीकन खिलाड़ियों की अनिवार्यता प्रमुख रही। इसके साल बाद कोटा बढ़ाकर छः हुआ जिसमें तीन ब्लैक अफ्रीकन खिलाड़ियों को शामिल करना जरूरी कर दिया गया। यह परंपरा आज भी बरकरार है।

लोर्गट के मुताबिक “ये लक्ष्य थे न कि कोटा क्योंकि फ्रेंचाइजी खुद सीएसए को समझा सकते थे यदि वे खिलाड़ी खोजने में असफल होते। जबकि तय कोटा एक तौर पर निर्धारित कर दिया जाता है।" हालांकि CSA ने शुरू में राष्ट्रीय टीम से टारगेट को दूर रखने की कोशिश की, लेकिन आशंका जताई जा रही है प्रथम श्रेणी के स्तर पर अधिक विविधता पर विश्वास करने से दक्षिण अफ्रीकी दस्ते में सरकारी दबाव के कारण राष्ट्रीय टीम में भी यह गुणा-ज्ञान लागू हो सकता है।

देश के सभी खेल संघों के साथ, सीएसए के पास अपने संगठन के हर पहलू को बदलने के लिए संवैधानिक दायित्व हैं। लोर्गट का यह भी मानना ​​है कि दक्षिण अफ्रीका में खेल की स्थिरता इस बात पर निर्भर करती है कि यह उन समुदायों तक पहुंचता है जो परंपरागत रूप से यहां पहले नहीं पहुंच पाए हैं।

रिपन की कहानी :

माइकल रिपन को भी खुद से वही सवाल पूछना पड़ा जो बोवेस ने खुद से दो बार किया था। केपटाउन में पले बढ़े ऑल-राउंडर ने 2010 में पश्चिमी प्रांत और कोबरा टीम में 18 साल की उम्र में शुरुआत की थी। उन्होंने आगामी सीज़न की शुरुआत में चोटिल होने के कारण महत्वपूर्ण अवसर गंवाए। जब वह ठीक हो रहे थे, तो उन्होंने ससेक्स के लिए थोड़ी गेंदबाजी की, जो कि प्री-सीज़न दौरे पर केपटाउन में थे। काउंटी के सहायक कोचों में से एक मार्क डेविस उनसे प्रभावित हुए और उनको नये अनुबंध का प्रस्ताव दिया।

रिपन को बताया गया था कि उनकी पश्चिमी प्रांत में आगामी टी 20 प्रतियोगिता में खेलने की संभावना नहीं है। बोवेस की ही तरह, उन्होंने घर में अपने अवसरों को अवरुद्ध देखा। युवा और महत्वाकांक्षी रिपन भी इस निर्णय से संतुष्ट नहीं थे। अपनी पहचान बनाने रिपन ने ससेक्स जाकर किस्मत आजमाने का फैसला लिया।

रिपन ने ट्रायल के दौरान अच्छा प्रदर्शन किया और ससेक्स ने उनको दो साल के अनुबंध की पेशकश की। जिसे उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार कर लिया। मोंटी पनेसर और मैट प्रायर, एड जॉयस, ल्यूक राइट के साथ खेलने के लिए, यह वास्तव में बड़ा प्रस्ताव था लेकिन साथ ही रिपन को लगता था कि यह ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा और उनको किसी चरण में दक्षिण अफ्रीका वापस लौटना होगा।"

चार साल खाली रहे :

ससेक्स द्वारा रिलीज़ किए जाने के बाद, रिपन ने पूर्णकालिक अनुबंध के बिना चार साल बिताए। दक्षिण अफ्रीका में चीजें आगे बढ़ीं और उनको वापसी का मौका नहीं मिल पाया। यूके क्लब क्रिकेट में उनके लिए कुछ अवसर बने, कुछ काउंटी सेकंड इलेवन के मैच में संभावना बनी तो वे डच राष्ट्रीय टीम के लिए भी खेले। फिर हॉलैंड ने अपना एकदिवसीय दर्जा खो दिया जिससे फिर संकट के बादल घिर आए।

इसलिए जब एंटोन ले रूक्स ने नीदरलैंड के मुख्य कोच के रूप में अपना पद छोड़ने के बाद ओटागो वोल्ट्स के साथ काम करना शुरू किया तो उन्होंने रिपन को ओटागो के स्पिनर मार्क क्रेग की जगह आमंत्रित किया जहां रिपन ने पिछले तीन सीजन बिताए हैं।

लोर्गट कहते हैं, "उन लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करना बहुत मुश्किल है जो डॉलर या पाउंड में कमा सकते हैं। हाशिम अमला जैसे खिलाड़ी ने कोलपैक मार्ग पर जाने का फैसला किया है। यह लक्ष्य के आधार पर नहीं है। आप अर्थशास्त्र और एक अनुबंध की सुरक्षा के खिलाफ लड़ाई करते हैं।"

तीन गुना अधिक कमाई :

यह सच है कि, काउंटी क्रिकेट में कोलपैक सौदों पर खिलाड़ी तीन गुना ज्यादा कमा सकते हैं जो वे घर पर नहीं कमा पाते हैं। तेज गेंदबाज डुआने ओलिवियर ने कथित तौर पर यॉर्कशायर में तीन साल की सिक्स फिगर डील पर साइन किए हैं। ये वो राशि है जो केवल बहुत ही बेहतरीन अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दक्षिण अफ्रीका में कमा सकते हैं। काइल एबोट भी एक नाटकीय घटनाक्रम के बीच 2017 में हैम्पशायर से जुड़े। ऐसे में दक्षिण अफ्रीका को कोलपैक के कारण आठ उम्दा खिलाड़ियों का नुकसान हुआ।

इनका पलायन :

अमला, मोर्ने मोर्कल और वर्नोन फिलेंडर अगले सत्र में समरसेट से जुड़ेंगे। जिन्होंने कोलपैक कॉन्ट्रैक्ट के कारण अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया है। हालांकि यह ताजा घटनाक्रम नहीं है। साल 2000 के दशक के पिछले तीन सालों में 12 खिलाड़ियों को कोलपैक रास आया है।

'भाड़े का' करार देना गलत :

ऐसा नहीं है कि वित्तीय सुरक्षा के लिए खिलाड़ियों को दोषी ठहराया जाए। खिलाड़ियों का छोटा करियर है। कोलपैक क्रिकेटर्स को 'भाड़े का' करार देना गलत होगा। वास्तव में, वे पेशेवर हैं जो अपने परिवारों के लिए बेहतर प्रदान करने की कोशिश कर रहे हैं।

लेकिन कई लोग जो छोड़ गए हैं, उनके लिए पैसा मुख्य प्रेरक नहीं रहा है। साइमन हार्मर ने मूल रूप से एसेक्स के साथ 30,000 पाउंड के छः महीने के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए, जो बेहतर राशि है। रिपन और बोवेस ने अपनी बचत का उपयोग क्रमशः ससेक्स और कैंटरबरी में अपनी किस्मत आजमाने के लिए किया।

ऑलिवियर ने यॉर्कशायर के लिए साइन करने पर पांच टेस्ट में सिर्फ 31 विकेट लिए थे। एबोट ने हैम्पशायर की घोषणा के कुछ महीने पहले होबार्ट में एक टेस्ट में नौ विकेट लिए थे। जबकि हारमर्स को दुनिया में सबसे अच्छा ऑफ स्पिनर बताया जा रहा है। ऐसे में साफ है क्रिकेट साउथ अफ्रीका से प्रतिभाशाली क्रिकेटर्स यदि ऐसे ही जाते रहे तो उस देश के क्रिकेट के स्तर पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

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