क्या है ईरान और अमेरिका की दुश्मनी का कारण?

जब अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की शुरुआत हुई तो फिर दोनों मुल्कों के बीच तल्खी की शुरुआत हो गई। वो इसलिए क्योंकि ट्रंप ने दोनों देशों के बीच संयुक्त समझौते की शर्तों को खारिज़ कर दिया।
Reason Behind Iran-America Enmity
Reason Behind Iran-America EnmityKavita Singh Rathore -RE

हाइलाइट्स :

  • अमेरिका-ईरान तनाव से उपजा संकट

  • कैसे बढ़ता गया दोनों देशों के बीच गतिरोध

  • कैसे हुआ था ईरान में 1953 का तख़्तापलट

राज एक्सप्रेस। ईरान के ताक़तवर माने जाने वाले सैन्य कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी के अमेरिका के हमले में मारे जाने के बाद दुनिया में संकट पैदा हो गया है। ईरान और अमेरिका के बीच चल रही गहमागहमी के बीच दुनिया में तनाव बढ़ रहा रहा है। ऐसे में क्या हालात होंगे और दोनों मुल्कों के बीच तनाव की वजह क्या है चलिए जानते हैं इस बारे में…

तख़्तापलट :

दरअसल 1953 में तख़्तापलट से होती है दोनों देशों के बीच दुश्मनी की शुरुआत। इस साल अमेरिका और ईरान के बीच दुश्मनी की शुरुआत तब हुई जब अमेरिका की सीआईए (सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी) ने ब्रितानी हुकूमत के साथ मिलकर ईरान में तख़्तापलट कर दिया था। इस दौर में अमेरिका ने प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक़ को बेदखल करके शासन शाह रज़ा पहलवी के हवाले कर दिया।

कैसे किया बेदख़ल :

सीआईए ने ईरान के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक़ को सत्ता से बेदखल करवाया था। कारण था तेल! वो कैसे? वो ऐसे कि ईरान के प्रधानमंत्री ईरान के शाह को लगाम में रखकर तेल कारोबार को नियंत्रित करना चाहते थे।

पहला मौका :

अमेरिका की चौधराहट का यह पहला मौका था जब उसने शांति के नाम पर किसी विदेशी नेता को पद से हटाया था। जिसके बाद अमेरिका कई देशों के आंतरिक मामलात में दखल देने लगा। दरअसल साल 1953 में ईरान में अमेरिका ने जो तख्ता पलट किया उसके बाद ही 1979 में क्रांति का आगाज़ हुआ।

क्या थी ईरान क्रांति :

तख़्तापलट के बाद साल 1971 में ईरान में अमेरिका के विरुद्ध एक आयोजन हुआ। इसमें ईरानी शाह के कहने पर यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो, मोनाको के प्रिंस रेनीअर, प्रिंसेस ग्रेस, अमेरिका के उप-राष्ट्रपति सिप्रो अग्नेयू और सोवियत संघ के स्टेट्समैन निकोलई पोगर्नी को आमंत्रित किया गया। लेकिन निर्वासित जीवन जी रहे ईरान के एक नेता ने कुछ सालों बाद इस पार्टी के विरुद्ध मोर्चा खोलकर शाह के ख़िलाफ़ जमकर आंदोलन किया।

कौन था वो नेता?

वो लीडर थे आयतोल्लाह रुहोल्लाह ख़ुमैनी जो 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति से पहले तुर्की, इराक़ और पेरिस में निर्वासन झेल रहे थे। ख़ुमैनी ने शाह पहलवी के मार्फत ईरान में पश्चिम के बढ़ते प्रभाव और अमेरिका के खिलाफ़ जमकर मोर्चा खोला।

क्रांति की शुरुआत :

ख़ुमैनी की लीडरशिप में शाह के विरुद्ध क्रांति ने जोर पकड़ लिया और ईरान में कई महीनों तक धरना-प्रदर्शन-हड़ताल हुई। आंदोलन इतना बढ़ा कि जनवरी 1979 में ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को निर्वासन के लिए मजबूर होना पड़ा।

अब बारी थी ख़ुमैनी की :

जब ईरान के शाह देश से बाहर हुए तो फिर फ़रवरी 1979 में ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता के रुप में आयतोल्लाह ख़ुमैनी वापसी हुई। इनका बड़ी तादाद में लोगों ने गर्मजोशी से स्वागत किया, जिससे ईरान में नए युग की शुरुआत हुई।

इस्लामी गणतंत्र :

ख़ुमैनी के आने और जनमत संग्रह के बाद अप्रैल 1979 में ईरान में इस्लामी गणतंत्र की घोषणा हुई। क्रांति के बाद देश जब रूढ़िवादी राष्ट्र बना तो इस पर भी टीका टिप्पणी हुई। इस बाबत् एक इंटरनेशनल नॉन गवर्नमेंट ऑर्गनाइज़ेशन ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया था-

''ज़्यादातर उग्र क्रांतिकारी क्रांति के बाद रूढ़िवादी बन जाते हैं।''

हना एरेंट, जर्मन दार्शनिक

लोकतंत्र का दमन! :

पश्चिम की मान्यता है कि ख़ुमैनी के सत्ता में आने पर उनकी उदारता में बदलाव आ गया और ख़ुमैनी ने ख़ुद को वामपंथी आंदोलनों से अलग कर रूढ़ीवादी रुख अपना लिया। इसके बाद जो खबरें आईं उसके मुताबिक ख़ुमैनी ने विपक्ष का दमन किया और इस्लामिक रिपब्लिक और ईरान में लोकतंत्र का दमन किया।

इससे बढ़ा तनाव :

जब ईरान में 52 अमेरिकी नागरिकों को कई दिन तक बंधक बनाया गया तो ईरान-अमेरिका के रिश्तों में तल्खी आ गई। बाद में चलकर दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की भी इतिश्री हो गई। दरअसल तेहरान में अमेरिकी दूतावास को क़ब्ज़े में लेने की घटना के कारण भी तनाव चरम पर पहुंच गया। कहा तो यह भी जाता है कि इस घटनाक्रम में ख़ुमैनी का भी अप्रत्यक्ष समर्थन था।

रीगन चैप्टर :

जब अमेरिका में नया राष्ट्रपति बना तब जाकर बंधकों की रिहाई हुई। जब रोनल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बने तब जाकर अमेरिका के नागरिक बंधन से मुक्त हुए। रिपोर्ट्स के मुताबिक पहलवी की मृत्यु के बाद ख़ुमैनी ने अपना रुझान धर्म केंद्रित कर लिया।

सद्दाम का हमला :

ईरान-इराक गहमागहमी- 1980 से 88 के बीच ईरान-इराक़ के बीच लंबी लड़ाई चली और तमाम हथियारों का प्रयोग हुआ। जब साल 1980 में सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला किया तो दुनिया दोनों देशों के पचड़े में पड़ गई। इस युद्ध में अमेरिका ने सद्दाम हुसैन का साथ दिया, सोवियत ने भी सद्दाम की जमकर मदद की।

लाखों हुए मृत :

दोनों देशों और समर्थक देशों के बीच हुए युद्ध में एक अनुमान के मुताबिक पांच लाख से अधिक ईरानी और इराक़ी सैनिक-नागरिक मारे गए। इस युद्ध में इराक़ पर रासायनिक हमले का भी आरोप लगा जिसका ईरान ने जमकर प्रतिरोध किया।

परमाणु ताकत की ओर :

इस युद्ध के बाद ईरान ने परमाणु शक्ति बनने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया। यह काम गुपचुप तरीके से किया गया और साल 2002 तक इसकी किसी को भनक तक नहीं लगी। जब ईरान-इराक़ के बीच संबंधों में बदलाव आए तो अमेरिका ने भी अपना रुख बदल लिया। अमेरिका ने न केवल सद्दाम हुसैन को समर्थन देना बंद किया बल्कि इराक़ में हमले की भी तैयारी कर डाली। ईरान ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ कदमताल की।

परमाणु कार्यक्रम पर शक :

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर वेस्टर्न कंट्रीज़ को हमेशा से शक रहा है। जब शक गहराया तो यूरोप ने ईरान से परमाणु कार्यक्रम का खुलासा करने की पेशकश की। इस दौरान हाविय सालोना ने यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधि के तौर पर ईरान से चर्चा में मध्यस्थता की। सालोना ने उस दौरान कहा था कि “ईरान में 2005 के चुनाव के कारण बातचीत में सफलता नहीं मिल पाई।”

इसके बाद जब साल 2013 में हसन रूहानी जब फिर से चुनकर आए तो एक बार फिर वैश्विक पटल पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर बहस छिड़ गई।

ओबामा का हस्तक्षेप :

सालों चली नफरत के बाद अमेरिका में बतौर राष्ट्रपति बराक ओबामा की एंट्री हुई तो फिर साल 2015 में दोनों देशों के बीच संबंधों में कुछ नरमी आई। जब संयुक्त व्यापक योजना की बात छिड़ी तो दुनिया में इसे बड़े बदलाव के तौर पर देखा गया।

ट्रंप कार्ड से फिर तनाव :

जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन की शुरुआत हुई तो फिर दोनों मुल्कों के बीच तल्खी की शुरुआत हो गई। वो इसलिए क्योंकि ट्रंप ने दोनों देशों के बीच संयुक्त समझौते की शर्तों को खारिज़ कर दिया। साथ ही ट्रंप प्रशासन ने जब ईरान पर प्रतिबंध लगाए तो संबंध तनावग्रस्त हो गए। ट्रंप ने दुनिया भर के देशों को ईरान से कारोबारी संबंध रखने पर अमेरिका से संबंध तोड़ने तक की एक तरह से धमकी दे डाली।

यही वजह है कि, इसके बाद से अमेरिका-ईरान के बीच संबंध ठीक नहीं चल रहे। एक पक्ष यह भी है कि यूरोपियन यूनियन ने जब परमाणु समझौते पर ईरान का पक्ष लिया तो भी ट्रंप ने किसी की नहीं सुनी।

मौत के बाद :

ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी की हवाई हमले में मौत के बाद फिर दोनों मुल्कों की तलवारें म्यान के बाहर निकल आई हैं। कुद्स फोर्स के नए चीफ इस्माइल गनी ने अमेरिका को जनरल सुलेमानी की मौत का बदला लेने की चेतावनी देकर दुनिया को टेंशन में डाल दिया है। ईरान की संसद में अमेरिकी सेना को आतंकी संगठन घोषित करने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली है। इस नए घटनाक्रम के कारण दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है, क्योंकि तेल का आयात प्रभावित होगा और अर्थव्यवस्थाओं में तेल का खेल किसी से छिपा नहीं है।

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